ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 15
ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः
देवता - इषवः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आला॑क्ता॒ या रुरु॑शी॒र्ष्ण्यथो॒ यस्या॒ अयो॒ मुख॑म्। इ॒दं प॒र्जन्य॑रेतस॒ इष्वै॑ दे॒व्यै बृ॒हन्नमः॑ ॥१५॥
स्वर सहित पद पाठआल॑ऽअक्ता । या । रुरु॑ऽशीर्ष्णी । अथो॒ इति॑ । यस्याः॑ । अयः॑ । मुख॑म् । इ॒दम् । प॒र्जन्य॑ऽरेतसे । इष्वै॑ । दे॒व्यै । बृ॒हत् । नमः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आलाक्ता या रुरुशीर्ष्ण्यथो यस्या अयो मुखम्। इदं पर्जन्यरेतस इष्वै देव्यै बृहन्नमः ॥१५॥
स्वर रहित पद पाठआलऽअक्ता। या। रुरुऽशीर्ष्णी। अथो इति। यस्याः। अयः। मुखम्। इदम्। पर्जन्यऽरेतसे। इष्वै। देव्यै। बृहत्। नमः ॥१५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 15
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राज्ञी कीदृशी भवेदित्याह ॥
अन्वयः
याऽऽलाक्ता रुरुशीर्ष्ण्यथो यस्या इदमयो मुखमस्ति तद्धर्त्र्ये पर्जन्यरेतसे देव्या इष्वै शूरवीरायै स्त्रियै बृहन्नमोऽस्तु ॥१५॥
पदार्थः
(आलाक्ता) आलेन विषेण दिग्धा युक्ता (या) (रुरुशीर्ष्णी) रुरोः शिर इव शिरो यस्याः सा (अथो) (यस्याः) (अयः) लोहयुक्तम् (मुखम्) (इदम्) (पर्जन्यरेतसे) पर्जन्यस्य रेत उदकमिव रेतो वीर्यं यस्यास्तस्यै। रेत इत्युदकनाम। (निघं०१२) (इष्वै) गन्त्र्यै (देव्यै) दिव्यायै (बृहत्) महत् (नमः) अन्नम् ॥१५॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! या राज्ञी धनुर्वेदविच्छस्त्रास्त्रप्रक्षेप्त्री वर्त्तते तस्या वीरैः सत्कारः सततं कार्य्यः ॥१५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर रानी कैसी हो, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(या) जो (आलाक्ता) विष से युक्त (रुरुशीर्ष्णी) रुरु जाति के मृग के शिर के समान जिसका शिर और (अथो) इसके अनन्तर (यस्याः) जिसका (इदम्) (अयः) लोहेयुक्त (मुखम्) मुख है उस धारण करनेवाली (पर्जन्यरेतसे) मेघ के जल के समान वीर्यवती (देव्यै) दिव्य और (इष्वै) गमन करती हुई शूरवीर स्त्री के लिये (बृहत्) बहुत (नमः) अन्न हो ॥१५॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो रानी धुनर्वेद जानती हुई शस्त्र-अस्त्र फेंकनेवाली है, उसका वीरों को निरन्तर सत्कार करना चाहिये ॥१५॥
विषय
विष से बुझे बाण तथा सुन्दर स्त्री का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ‘इषु’ अर्थात् वाण की डण्डी (आल-अक्ता) विष से बुझी, (रुरु-शीर्ष्णी) मृग के समान अग्रमुख वाली, (अथो) और (यस्याः मुखम् ) जिसके मुख में (अयः) लोहे का फल लगा रहता है वह (पर्जन्यरेतसे ) मेघ के जल से सिंचकर वृद्धि पाती है उसको ही हम ( बृहत् नमः ) बड़ा शत्रु नमाने का साधन बनाते हैं उसी प्रकार (या) जो स्त्री (आलाक्ता = आरक्ता वा आरा-अक्ता ) ईषत् अनुराग से युक्त ( रुरु-शीर्ष्णी) हरिण के समान शिर, मुख नयनों से युक्त, (अथो यस्य मुखम् अयः) और जिसका मुख सुवर्ण अलंकार से सुभूषित हो, ऐसी ( पर्जन्य-रेतसे ) तृप्ति, सुख देने वाले प्रिय पुरुष के वीर्य के धारण करने वाली ( इष्वै ) मनोकामना युक्त (देव्यै) उत्तम विदुषी स्त्री को प्राप्त करने अर्थात् गृहस्थ बसाने के लिये हम ( बृहत् नमः ) बहुत आदर, अन्नादि से ग्रहण करें । सेनापक्ष में – जो सेना ( आलाक्ता-आरा-अक्ता ) आरा अर्थात् शस्त्रों से सुशोभित ( रुरु-शीर्ष्णी ) हितकारी सिंहवत् पराक्रमी नेताओं को अपने प्रमुख शिरोमणि पद पर नियुक्त करने वाली है (यस्याः) जिसका (मुखम् अय:) मुख लोह के समान तीक्ष्ण और कठिन है, उस ( इष्वै दैव्यै ) प्रेरणा करने योग्य, युद्ध करने में कुशल ( पर्जन्य-रेतसे ) शत्रु को जीतने वाले वीर पुरुषों के पराक्रम वाली सेना का हम ( बृहत् नमः ) सदा आदर करें । इत्येकविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पायुर्भारद्वाज ऋषिः । देवताः - १ वर्म । १ धनुः । ३ ज्या । ४ आत्नीं । ५ इषुधिः । ६ सारथिः । ६ रश्मयः । ७ अश्वाः । ८ रथः । रथगोपाः । १० लिङ्गोक्ताः । ११, १२, १५, १६ इषवः । १३ प्रतोद । १४ हस्तघ्न: । १७-१९ लिङ्गोक्ता सङ्ग्रामाशिषः ( १७ युद्धभूमिर्ब्रह्मणस्पतिरादितिश्च । १८ कवचसोमवरुणाः । १९ देवाः । ब्रह्म च ) ॥ छन्दः–१, ३, निचृत्त्रिष्टुप् ॥ २, ४, ५, ७, ८, ९, ११, १४, १८ त्रिष्टुप् । ६ जगती । १० विराड् जगती । १२, १९ विराडनुष्टुप् । १५ निचृदनुष्टुप् । १६ अनुष्टुप् । १३ स्वराडुष्णिक् । १७ पंक्तिः ।। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
आलाक्ता इषु
पदार्थ
[१] बाण के अग्रभाग को विष में बुझा लेते हैं सो (या) = जो बाण (आल अक्ता) = विष ने (स्रे) = सिक्त है। (रुरुशीष्र्णी) = मृगशृंग से जिसका अग्रभाग बना हुआ है । अथ (उ) = और निश्चय से (यस्याः) = जिसका (मुखम्) = मुख (अयः) = अयोमय, लोहे का बना हुआ है। [२] (पर्जन्यरेतसे) = पर्जन्य की कार्यभूत इस (देव्यै इष्वै) = युद्ध में विजय की कामनावाली [दिव् - विजिगीषा] इषु के लिये (इदम्) = यह (बृहत्) = बहुत (नमः) = आदर करते हैं। जिस शरकाण्ड [सरकण्डे] से इषु बना होता है, वह बादल की वृष्टि से उत्पन्न होता है सो उसे 'पर्जन्यरेतस्' कहा है। इस इषु का हम आदर करते हैं। इसी ने तो हमें युद्ध में विजयी बनाना है।
भावार्थ
भावार्थ– बाण विषसिक्त होता है। मृगशृंग का इसका शिरस् है। अयोमय इसका मुख है। बादल से उत्पन्न शरकाण्ड का यह बना है। युद्ध में विजय प्राप्त करानेवाले इस इषु का हम आदर करते हैं। इसके द्वारा शत्रुओं का नतमस्तक करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जी राणी धनुर्वेद जाणकार असून शस्त्र, अस्त्र फेकणारी असते तिचा वीरांनी सदैव सत्कार करावा. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Poison-tempered with head like a doe’s and a mouth of steel, generous and abundant like a rain cloud is the brave ruling queen of arrows. For the lady of divine velocity, unbounded praise and homage of a thousand salutations!
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should a queen be-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We offer great salutations to the brave and divine lady, who has weapons associated with poison or medicines made from poison but converted into healing herbs, whose head is like the head of a (Ruru) particular deer and whose mouth is endowed with something containing iron-like, whose vital energy is fertile like the water of the cloud, who is active and going about to discharge her duties.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! that queen must be respected by her- heroes, who is the knower of the art of archery and well versed in the application of arms and missiles.
Translator's Notes
By आलाक्ता or विषेणदिग्धायुक्ता may be meant, either having weapons whose point is anointed with poison, to kill the wicked enemies or the drugs made from some poisonous substances like Arsenic or Aconite etc. converted into healing medicines.
Foot Notes
(आलाक्ता) आलेन विषेण दिग्धा युक्ता। = Having weapons whose points anointed with poison. (पज्न्वरेतसे) पर्जन्यस्य रेतः उदकमिव रेतो वीयं यस्याः सा । = Whose vital energy is fertile. like the water of cloud.
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