ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 10
ई॒युर्गावो॒ न यव॑सा॒दगो॑पा यथाकृ॒तम॒भि मि॒त्रं चि॒तासः॑। पृश्नि॑गावः॒ पृश्नि॑निप्रेषितासः श्रु॒ष्टिं च॑क्रुर्नि॒युतो॒ रन्त॑यश्च ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठई॒युः । गावः॑ । न । यव॑सात् । अगो॑पाः । य॒था॒ऽकृ॒तम् । अ॒भि । मि॒त्रम् । चि॒तासः॑ । पृश्नि॑ऽगावः । पृश्नि॑ऽनिप्रेषितासः । श्रु॒ष्टिम् । च॒क्रुः॒ । नि॒ऽयुतः॑ । रन्त॑यः । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईयुर्गावो न यवसादगोपा यथाकृतमभि मित्रं चितासः। पृश्निगावः पृश्निनिप्रेषितासः श्रुष्टिं चक्रुर्नियुतो रन्तयश्च ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठईयुः। गावः। न। यवसात्। अगोपाः। यथाऽकृतम्। अभि। मित्रम्। चितासः। पृश्निऽगावः। पृश्निऽनिप्रेषितासः। श्रुष्टिम्। चक्रुः। निऽयुतः। रन्तयः। च ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 10
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्जीवा स्वस्वकृतकर्मफलं प्राप्नुवन्त्येवेत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यवसादगोपा गावो नाऽभिमित्रमिव चितासो जीवा यथाकृतं कर्मफलमीयुर्यथा पृश्निगावोऽन्तरिक्षकिरणयुक्ताः पृश्निनिप्रेषितासो नियुतो रन्तयश्च वायवः श्रुष्टिं चक्रुस्तथैव ये कर्माणि कुर्वन्ति ते तादृशमेव लभन्ते ॥१०॥
पदार्थः
(ईयुः) प्राप्नुयुर्गच्छेयुर्वा (गावः) धेनवः (न) इव (यवसात्) भक्षणीयाद् घासाद्यात् (अगोपाः) अविद्यमानो गोपो यासां ताः (यथाकृतम्) येन प्रकारेणाऽनुष्ठितम् (अभिमित्रम्) अभिमुखं सखायमिव (चितासः) सञ्चययुक्ताः (पृश्निगावः) पृश्निवदन्तरिक्षवद्गावो येषान्ते (पृश्निनिप्रेषितासः) पृश्नावन्तरिक्षे नितरां प्रेषिता यैस्ते (श्रुष्टिम्) क्षिप्रम् (चक्रुः) कुर्वन्ति (नियुतः) निश्चितगतयो वायवः (रन्तयः) येषु रमन्ते (च) ॥१०॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा गोपालरहिता गावः स्ववत्सान् वायवोऽन्तरिक्षस्थान् किरणान् सखा सखायं च प्राप्नोति तथैव स्वकृतानि शुभाऽशुभानि कर्माणि जीवा ईश्वरव्यवस्थया प्राप्नुवन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर जीव अपने-अपने किये हुए कर्म के फल को प्राप्त होते ही हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यवसात्) भक्षण करने योग्य घास आदि से (अगोपाः) जिनकी रक्षा विद्यमान नहीं वे (गावः) गौयें (न) जैसे वा जैसे (अभिमित्रम्) सम्मुख मित्र, वैसे (चितासः) संचय अर्थात् संचित पदार्थों से युक्त जीव (यथाकृतम्) जैसे किया कर्म, वैसे उसके फल को (ईयुः) प्राप्त हों वा पहुँचें वा जैसे (पृश्निगावः) अन्तरिक्ष के तुल्य किरणों से युक्त (पृश्निनिप्रेषितासः) अन्तरिक्ष में निरन्तर प्रेषित किये हुए (नियुतः) निश्चित गतिवाले वायु और (रन्तयः) जिनमें रमते हैं वे वायु (च) (श्रुष्टिम्) शीघ्रता (चक्रुः) करते हैं, उसी प्रकार जो कर्म करते हैं, वे वैसा ही फल पाते हैं ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे चरवाहों से रहित गौयें अपने बछड़ों को और वायु अन्तरिक्षस्थ किरणों को और मित्र मित्र को प्राप्त होता है, वैसे ही अपने किये हुए शुभ अशुभ कर्मों को जीव ईश्वरव्यवस्था से प्राप्त होते हैं ॥१०॥
विषय
गोपाल और गौओं के तुल्य प्रभु और जीवगण इसी प्रकार प्रजा राजा ।
भावार्थ
( अगोपाः गावः न ) रक्षक से रहित, विना ग्वाले की गौएं जिस प्रकार ( यवसात् ) भुस, अन्नादि के हेतु ही ( ईयुः ) स्वामी के गृह में आ जाती हैं उसी प्रकार ( चितासः ) चेतना युक्त जीवगण भी ( यथा-कृतम् ) अपने किये कर्म के अनुसार ही ( मित्रम् अभि ईयु: ) अपने स्नेह करने वाले, वा जीवन से बचाने वाले प्रभु को प्राप्त होते हैं । जिस प्रकार ( पृश्नि-गावः ) 'पृश्नि' अर्थात् सूर्य से उत्पन्न नाना वर्ण की किरणें ( पृश्नि- निप्रेषितासः ) पृथ्वी पर या अन्तरिक्ष से प्रेरित होकर ( श्रुष्टिं चक्रुः ) वर्षा द्वारा अन्न उत्पन्न करती हैं और जिस प्रकार ( पृश्नि- गावः ) नाना वर्ण के बैल ( पृश्नि-निप्रेषितासः ) विद्वान् पुरुषों द्वारा खेत में चलाये गये ( श्रुष्टिं चक्रुः ) अन्न को उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार ( पृश्नि-गावः ) भूमि रूप गौवें, ( पृश्नि- निप्रेषितासः ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुषों से प्रेरित या शासित होकर ( श्रुष्टिं चक्रुः ) अन्न सम्पत्ति को उत्पन्न करती हैं इसी प्रकार ( नियुतः ) लक्षों नियुक्त सेनादि, अश्वारोही, पुरुष तथा ( रन्तयः ) रमण करने वाले सुप्रसन्न प्रजाजन भी ( श्रृष्टिं चक्रुः ) सम्पदा को उत्पन्न करते वा वायुवत् (श्रुष्टिं चक्रुः ) शीघ्र कार्य सम्पादन करते हैं । इति पञ्चविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
ज्ञानी की प्रभु की ओर गति
पदार्थ
[१] (नः) = जैसे (अगोपा:) = विना ग्वालेवाली (गाव:) = गौवें (यवसात्) = घास के उद्देश्य से (ईयुः) = गतिवाली होती हैं, अर्थात् घास की ओर चल देती हैं, इसी प्रकार (चितास:) = [चित् संज्ञाने] संज्ञानवाले पुरुष (यथाकृतम्) = अपने पुण्य के अनुसार (मित्रम् अभि) [ईयु:] = उस महान् मित्र प्रभु की ओर गतिवाले होते हैं। इन ज्ञानी पुरुषों की अपने पुण्य के सौभाग्य से प्रभु की ओर गति स्वाभाविक होती है। [२] ये ज्ञानी (पृश्निगाव:) = [पृश्नि-ray of light] प्रकाश किरणों से युक्त इन्द्रियोंवाले होते हैं। (पृश्नि-निप्रेषितासः) = प्रकाश की किरणों से ही अपने कर्त्तव्य कर्मों में प्रेषित होते हैं। इस प्रकार ये (श्रुष्टिं चक्रुः) = ऐश्वर्य व आनन्द को सिद्ध करते हैं, (च) = और (नियुतः) = इनके इन्द्रियाश्व (रन्तयः) = सदा कर्त्तव्य कर्मों में रमण करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानी पुरुष प्रभु की ओर चलता है। प्रकाश से कर्त्तव्य मार्ग पर प्रेरित होता है। इसके इन्द्रियाश्व कर्तव्य कर्मों में रमण करनेवाले होते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसे गोपालाच्या साह्याखेरीज गाई आपल्या वासरांना भेटतात व वायू अंतरिक्षातील किरणांना ग्रहण करतात व मित्र मित्रांना भेटतात, तसेच ईश्वरी व्यवस्थेने जीवांना आपापले शुभ, अशुभ कर्म प्राप्त होते. ॥ १० ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as cows free from the cowherd rush to the master from the pasture, as friends rush to meet a friend, as people having performed good actions by nature and law advance to receive their prize, and as the sun rays radiate across space and sky to meet the variegated earth, so do the forces of Indra, whether organised in battle order or resting off duty, and the people at peace rally and rush to Indra, the ruler, for service immediately on the clarion call.
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