ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 23
च॒त्वारो॑ मा पैजव॒नस्य॒ दानाः॒ स्मद्दि॑ष्टयः कृश॒निनो॑ निरे॒के। ऋ॒ज्रासो॑ मा पृथिवि॒ष्ठाः सु॒दास॑स्तो॒कं तो॒काय॒ श्रव॑से वहन्ति ॥२३॥
स्वर सहित पद पाठच॒त्वारः॑ । मा॒ । पै॒ज॒ऽव॒नस्य॑ । दानाः॑ । स्मत्ऽदि॑ष्टयः । कृ॒श॒निनः॑ । नि॒रे॒के । ऋ॒ज्रासः॑ । मा॒ । पृ॒थि॒वि॒ऽस्थाः । सु॒ऽदासः॑ । तो॒कम् । तो॒काय॑ । श्रव॑से । व॒ह॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चत्वारो मा पैजवनस्य दानाः स्मद्दिष्टयः कृशनिनो निरेके। ऋज्रासो मा पृथिविष्ठाः सुदासस्तोकं तोकाय श्रवसे वहन्ति ॥२३॥
स्वर रहित पद पाठचत्वारः। मा। पैजऽवनस्य। दानाः। स्मत्ऽदिष्टयः। कृशनिनः। निरेके। ऋज्रासः। मा। पृथिविऽस्थाः। सुऽदासः। तोकम्। तोकाय। श्रवसे। वहन्ति ॥२३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 23
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते राजादयः किमनुतिष्ठेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! पैजवनस्य ते यथा चत्वारो दानाः स्मद्दिष्टयः कृशनिन ऋज्रासः पृथिविष्ठा विद्वांसो निरेके मा नि दधति श्रवसे तोकाय च [मा] तोकं वहन्ति तथा तान् प्रति भवान् सुदासो भवेत् ॥२३॥
पदार्थः
(चत्वारः) ऋत्विजः (मा) माम् (पैजवनस्य) क्षमाशीलस्य पुत्रस्य (दानाः) दातारः (स्मद्दिष्टयः) निश्चिता दिष्टयो दर्शनानि येषान्ते (कृशनिनः) कृशनं बहुहिरण्यं विद्यते येषान्ते। कृशनमिति हिरण्यनाम। (निघं०१.२)। (निरेके) निःशङ्के राजव्यवहारे (ऋज्रासः) सरलस्वभावाः (मा) माम् (पृथिविष्ठाः) ये पृथिव्यां तिष्ठन्ति (सुदासः) शोभनदानः (तोकम्) अपत्यम् (तोकाय) अपत्याय (श्रवसे) विद्याश्रवणाय (वहन्ति) प्राप्नुवन्ति ॥२३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा वेदविद ऋत्विजो राजसहायेन यज्ञानुष्ठानात्सर्वेषां निश्चितं सुखं वर्धयन्ति यथा च ब्रह्मचारिणः सन्तानाय ब्रह्मचर्येण पूर्वं विद्याध्ययनाय च विवाहं विधायाऽपत्यमुत्पादयन्ति तथैव राजा राजपुरुषाश्च सर्वेषां हिताय सर्वान् सन्तानान् ब्रह्मचर्येण विद्या ग्राहयित्वा सर्वेषां सुखमुन्नेयुः ॥२३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे राजा आदि क्या अनुष्ठान करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (पैजवनस्य) क्षमाशील रखनेवाले के पुत्र आपके जैसे (चत्वारः) चार ऋत्विज् (दानाः) देनेवाले (स्मद्दिष्टयः) जिनके निश्चित दर्शन (कृशनिनः) वा बहुत हिरण्य विद्यमान (ऋज्रासः) जो सरल स्वभाव (पृथिविष्ठाः) पृथिवी पर स्थित रहते हैं वे विद्वान् जन (निरेके) निःशङ्क राज्यव्यवहार में (मा) मुझे विधान करते हैं, स्थिर करते हैं (श्रवसे) विद्या सुनने के लिये (तोकाय) सन्तान के अर्थ (मा) मुझ (तोकम्) सन्तान को (वहन्ति) पहुँचाते हैं, वैसे उनके प्रति आप (सुदासः) सुन्दर दानशील हूजिये ॥२३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! वेदवेत्ता ऋत्विज् ब्राह्मण राजसहाय से यज्ञानुष्ठान से सब का निश्चित सुख बढ़ाते हैं और जैसे ब्रह्मचारी सन्तान के लिये ब्रह्मचर्य्य से पहिले विद्या पढ़ने के लिये विवाह कर सन्तान उत्पन्न करते हैं, वैसे राजजन और राजपुरुष सब के हित के लिये ब्रह्मचर्य्य से विद्या ग्रहण कराकर सब के सुख की उन्नति करें ॥२३॥
विषय
४ वेदज्ञों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(पैजवनस्य) उत्तम आचरण, क्षमावान् प्रभु के (स्मद्दिष्टयः) उत्तम दर्शन वाले, ( कृशनिनः ) धनादि सम्पन्न ( दानाः ) दानशील (ऋज्रासः) सरल धार्मिक व्यवहारवान्, ( पृथिविष्ठाः ) पृथिवी पर विद्यमान ( चत्वारः ) चार ( सुदासः ) उत्तम सुख देने वाले हैं । वे ( मा तोकं ) पुत्रवत् पालनीय मुझ को ( निरेके ) शङ्कारहित सन्मार्ग में ( वहन्ति ) यज्ञ में चार ऋत्विजों और मार्ग में, रथ में नियुक्त चार अश्वों के समान ले जावें और वे ( मा ) मुझ को ( तोकाय ) उत्तम सन्तान और ( श्रवसे ) उत्तम यश प्राप्त करने के लिये ( वहन्ति ) सन्मार्ग पर चलावें । ये चार प्रभु के चार वेद और राजा के राज्य में चार वेदज्ञ विद्वान् हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
चार वेद [ज्ञान]
पदार्थ
[१] स्वाभाविक ज्ञान बल व क्रियावाले वे प्रभु पैजवन हैं- अत्यन्त वेगवान् 'मनसो जवीयः' मन से भी अधिक वेगवान् हैं। इस (पैजवनस्य) = वेग के पुञ्ज प्रभु के (मा) = मेरे लिये (चत्वारः) = चार (दानाः) = वासनाओं का विनाश [दाप् लवने] करनेवाले ये वेद [ज्ञान] हैं। (स्मद् दिष्टयः) = ये मेरे जीवन के लिये अतिशयेन प्रशस्त निर्देशोंवाले हैं। (निरेके) = सब दोषों के विरेचन के लिये (कृशनिनः) = ये स्वर्णसम देदीप्यमान ज्ञान ज्योतिवाले हैं। इस ज्ञान ज्योति में सब वासनान्धकार में विलीन हो जाता है। [२] (मा) = मेरे लिये (ऋज्रासः) = ऋजुमार्ग की प्रेरणा देनेवाले, (पृथिविष्ठा:) = इस शरीररूप पृथिवी में मुझे स्थित करनेवाले, अर्थात् मुझे पूर्ण स्वस्थ बनानेवाले, ये वेदज्ञान (सुदासः तोकम्) = सुदास् के पुत्र-अतिशयेन शत्रुओं का उपक्षय [दसु उपक्षये] करनेवाले मुझको (तोकाय) = उत्तम सन्तानों की प्राप्ति के लिये अथवा वृद्धि (तु वृद्धौ) के लिये तथा (श्रवसे) = ज्ञान-ज्योति की प्राप्ति के लिये अथवा यशस्वी जीवन के लिये (वहन्ति) = ले चलते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु से दिया गया चार भागों में विभक्त वेदज्ञान, मेरे लिये वासनाओं को विनष्ट करनेवाला है, यह मुझे उत्तम सन्तति व यशस्वी जीवन को देनेवाला है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! वेदवेत्ते ऋत्विज ब्राह्मण राज्याच्या साह्याने यज्ञानुष्ठान करून सर्वांचे सुख निश्चित वाढवितात. जसे ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्याने प्रथम विद्याध्ययन करून नंतर संतानासाठी विवाह करून संतान उत्पन्न करतात तसे राजजन व राजपुरुषांनी सर्वांच्या हितासाठी ब्रह्मचर्याने विद्या ग्रहण करवून सर्वांचे सुख वाढवावे. ॥ २३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Four-fold gifts of the generous yajamana, grand child of the pious progressive yajaka, golden majestic and moving straight on the right course in life in the most stable manner without jolt or deviation on the earth, bear me like a child of divinity to my grand child for the achievement of honour and excellence.
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