ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 24
यस्य॒ श्रवो॒ रोद॑सी अ॒न्तरु॒र्वी शी॒र्ष्णेशी॑र्ष्णे विब॒भाजा॑ विभ॒क्ता। स॒प्तेदिन्द्रं॒ न स्र॒वतो॑ गृणन्ति॒ नि यु॑ध्याम॒धिम॑शिशाद॒भीके॑ ॥२४॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । श्रवः॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒न्तः । उ॒र्वी इति॑ । शी॒र्ष्णेऽशी॑र्ष्णे । वि॒ऽब॒भाज॑ । वि॒ऽभ॒क्ता । स॒प्त । इत् । इन्द्र॑म् । न । स्र॒वतः॑ । गृ॒ण॒न्ति॒ । नि । यु॒ध्या॒म॒धिम् । आ॒शि॒शा॒त् । अ॒भीके॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य श्रवो रोदसी अन्तरुर्वी शीर्ष्णेशीर्ष्णे विबभाजा विभक्ता। सप्तेदिन्द्रं न स्रवतो गृणन्ति नि युध्यामधिमशिशादभीके ॥२४॥
स्वर रहित पद पाठयस्य। श्रवः। रोदसी इति। अन्तः। उर्वी इति। शीर्ष्णेऽशीर्ष्णे। विऽबभाज। विऽभक्ता। सप्त। इत्। इन्द्रम्। न। स्रवतः। गृणन्ति। नि। युध्यामधिम्। अशिशात्। अभीके ॥२४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 24
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते राजादयः किंवत् किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यस्य श्रव उर्वी रोदसी शीर्ष्णेशीर्ष्णेऽन्तर्विबभाज ये इन्द्रं न सप्त विभक्ता सत्यौ सुखानीत् स्रवतो येषां सर्वे विद्वांसो गृणन्ति तयोर्विद्यया यो राजाऽभीके युध्यामधि न्यशिशात्स एव राज्यं शासितुमर्हेत् ॥२४॥
पदार्थः
(यस्य) मनुष्यस्य (श्रवः) अन्नं श्रवणं वा (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अन्तः) मध्ये (उर्वी) बहुकलादियुक्ते (शीर्ष्णेशीर्ष्णे) शिरोवदुत्तमायोत्तमाय सुखाय (विबभाज) विशेषेण भजेत सेवेत (विभक्ता) विभक्ते भिन्ने (सप्त) सप्तविधे (इत्) एव (इन्द्रम्) विद्युतम् (न) इव (स्रवतः) प्रापयतः (गृणन्ति) स्तुवन्ति (नि) (युध्यामधिम्) यो युधि सङ्ग्राम आमं रोगं दधाति तं शत्रुम् (अशिशात्) छेदयेत् (अभीके) समीपे ॥२४॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदि राजादयो धर्म्ये न्याये वर्त्तित्वा राज्यं प्रशासयेयुस्तर्हि सूर्यवत्प्रजासूत्तमानि सुखान्युन्नेतुं शक्नुवन्ति शत्रून्निवार्य्य भद्रान् समीपस्थाञ्जनान् सत्कर्तुं जानन्ति ॥२४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे राजा आदि किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यस्य) जिसका (श्रवः) अन्न वा श्रवण (उर्वी) बहुफलादि पदार्थों से युक्त (रोदसी) आकाश और पृथिवी को (शीर्ष्णेशीर्ष्णे) शिर के तुल्य उत्तम सुख के लिये (अन्तः) बीच में (विबभाज) विशेषता से भेजता है जिन (इन्द्रम्) इन्द्र के (न) समान (सप्त) सप्त प्रकार से (विभक्ता) विभाग को प्राप्त हुई =हुए आकाश और पृथिवी, सुखों को (इत्) ही (स्रवतः) पहुँचाते हैं जिनकी सब विद्वान् जन (गृणन्ति) प्रशंसा करते हैं उनकी विद्या से जो राजा (अभीके) समीप में (युध्यामधिम्) युद्धरूपी रोग को धारण करते शत्रु को (नि, अशिशात्) निरन्तर छेदे, वही राज्य-शिक्षा देने के योग्य हो ॥२४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं । यदि राजादि पुरुष धर्मयुक्त न्याय में वर्त कर राज्य को उत्तम शिक्षा दिलावें तो सूर्य के समान प्रजाओं में उत्तम सुखों की उन्नति कर सकते हैं और शत्रुओं को निवार =निवारण कर सुख देनेवाले समीपस्थ जनों को सत्कार करना जानते हैं ॥२४॥
विषय
तीक्ष्ण राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यस्य श्रवः ) जिस पुरुष का ज्ञान, यश वा ऐश्वर्य ( उर्वी रोदसी अन्तः ) विशाल आकाश और पृथ्वी के बीच तेज को सूर्य के समान ( शीर्ष्णे-शीर्ष्णे ) प्रत्येक व्यक्ति की उन्नति के लिये (वि बभाज) विभक्त किया जाता है। जिसको (स्रवतः सप्त) वेग से चलने वाले सातों, देह में प्राणों के समान राष्ट्र के सातों विभाग, या सर्पणशील वेगवान् अश्वादि सैन्य ( इन्द्रं न ) अपने आत्मा वा राजा के समान ( गृणन्ति ) बतलाते हैं वह ( युधि-आमधिम् अथवा युध्या-मधिं = मदिम् ) युद्ध में पीड़ादायक वा युद्ध के मद वाले शत्रु को ( अभीके ) संग्राम में ( नि अशिशात् ) खूब शासन करे, उसको पराजित करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
युध्यामधि का तनूकरण (विच्छेद)
पदार्थ
[१] (यस्य) = जिस प्रभु का (श्रवः) = यश (ऊर्वी रोदसी अन्तः) = इन विशाल द्यावापृथिवी के बीच में है, जिसकी महिमा इन द्यावापृथिवी में सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। जो प्रभु (शीर्ष्णे शीर्ष्णे) = प्रत्येक व्यक्ति के लिए (विबभाज) = धनों का विभाग करते हैं, जो सभी को भोजन प्राप्त कराते हैं 'अमन्तवो मान्त उपक्षियन्ति' कट्टर नास्तिकों को भी तो वे भोजन द्वारा जीवन में निवास करानेवाले हैं। (विभक्ता) = वे प्रभु ही सर्वमहान् विभाग करनेवाले हैं। [२] (स्रवतः) = बहते हुए (सप्त इत्) = मेरे ये सातों ही 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' कान, नाक, आँख व मुख से होनेवाले ज्ञान-प्रवाह उस प्रभु को (इन्द्रं न) = परमैश्वर्यशाली के समान (गृणन्ति) = स्तुत करते हैं। वस्तुतः मेरे से स्तुति किये गये ये प्रभु ही (युध्यामधिम्) [युधि+आम धि] = जीवन संग्राम में रोगों का आधान करनेवाले वासनारूप शत्रु को अभीके-संग्राम में नि अशिशात् निश्चय से छिन्न करते हैं। मैं प्रभु-स्तवन करता हूँ। प्रभु मेरे शत्रुओं को छिन्न करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का यश सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है। प्रभु ही सबको भोजन देनेवाले हैं। मेरे सातों [दो कान, दो नासिकाछिद्र, दो आँख और मुख] ज्ञान-प्रवाह प्रभु का ही स्तवन करते हैं। प्रभु ही मेरे वासनारूप शत्रु को शीर्ण करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. राजा इत्यादींनी धर्मयुक्त न्यायपूर्वक वागून राज्याचे प्रशासन चालविल्यास ते सूर्याप्रमाणे प्रजेमध्ये उत्तम सुखाची वाढ करू शकतात व शत्रूंचे निवारण करून सुख देणाऱ्यांच्या जवळ राहणाऱ्या लोकांचा सत्कार करणे जाणतात. ॥ २४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
One whose honour and fame rings in the skies and over the wide earth, whose gifts of generosity are distributed over from person to person of eminence, whom the seven fluent regions of heaven and earth celebrate and glorify like Indra, lord of light and fire and power, and who fights out a war monger in battle close at hand as one would eliminate a disease, such a person and power is fit to be the ruler.
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