ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 20
न त॑ इन्द्र सुम॒तयो॒ न रायः॑ सं॒चक्षे॒ पूर्वा॑ उ॒षसो॒ न नूत्नाः॑। देव॑कं चिन्मान्यमा॒नं ज॑घ॒न्थाव॒ त्मना॑ बृह॒तः शम्ब॑रं भेत् ॥२०॥
स्वर सहित पद पाठन । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । सु॒ऽम॒तयः॑ । न । रायः॑ । स॒म्ऽचक्षे॑ । पूर्वाः॑ । उ॒षसः॑ । न । नूत्नाः॑ । देव॑कम् । चि॒त् । मा॒न्य॒मा॒नम् । ज॒घ॒न्थ॒ । अव॑ । त्मना॑ । बृ॒ह॒तः । शम्ब॑रम् । भे॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न त इन्द्र सुमतयो न रायः संचक्षे पूर्वा उषसो न नूत्नाः। देवकं चिन्मान्यमानं जघन्थाव त्मना बृहतः शम्बरं भेत् ॥२०॥
स्वर रहित पद पाठन। ते। इन्द्र। सुऽमतयः। न। रायः। सम्ऽचक्षे। पूर्वाः। उषसः। न। नूत्नाः। देवकम्। चित्। मान्यमानम्। जघन्थ। अव। त्मना। बृहतः। शम्बरम्। भेत् ॥२०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 20
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! ते पूर्वा नूत्ना उषसो न सुमतयो न रायः संचक्षे कोऽपि न जघन्थ कोऽपि न हन्ति यथा सूर्यो बृहतः शम्बरं भेत्तथा यं त्मना त्वमव जघन्थ चिदिव मान्यमानं देवकं सत्कुर्यास्तदा प्रजाः सर्वतो वर्धेरन् ॥२०॥
पदार्थः
(न) निषेधे (ते) तव (इन्द्र) सुखप्रद राजन् (सुमतयः) शोभनाः प्रज्ञा येषु ते (न) इव (रायः) धनानि (संचक्षे) सम्यक् प्रख्यातुम् (पूर्वाः) (उषसः) (न) इव (नूत्नाः) नवीनाः (देवकम्) देवमिव वर्त्तमानम् (चित्) इव (मान्यमानम्) मान्यानां मानं सत्कारो यस्मात् तम् (जघन्थ) हंसि (अव) विरोधे (त्मना) आत्मना (बृहतः) (शम्बरम्) मेघम् (भेत्) बिभेत्ति ॥२०॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे राजन् ! यथा पूर्वा नूतना भविष्यन्त्यश्च प्रभातवेलाः सर्वथा मङ्गलकारिण्यः सन्ति तथा यदि न्यायोपार्जितेन धार्मिकान् प्राज्ञान् सत्कृत्यैते राजकार्याणि साधयेस्तत्र मेघं सूर्य इव दुष्टान् हत्वा श्रेष्ठान् प्रसन्नान् रक्षेस्तर्हि तव सर्वतो वृद्धिः स्यात् ॥२०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सुख देनेवाले (ते) आपके (पूर्वाः) पहिली और (नूत्नाः) नवीन (उषसः) उषा वेलाओं के (न) समान वा (सुमतयः) उत्तम बुद्धिमानों के (न) समान (रायः) धनों को (संचक्षे) अच्छे प्रकार कहने को कोई भी (न) नहीं (जघन्थ) मारता है वा जैसे सूर्य (बृहतः) बड़े से बड़े (शम्बरम्) मेघदल को (भेत्) विदीर्ण करता, वैसे जिसे (त्मना) अपने से आप (अव) नष्ट करते हैं (चित्) उसके समान (मान्यमानम्) मान्यों का सत्कार जिसमें है उस (देवकम्) देव समान वर्त्तमान का सत्कार करें तो प्रजा सब ओर से बढ़े ॥२०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे राजन् ! जैसे पिछली और नई होनेवाली प्रभात वेला सर्वथा मङ्गल करनेवाली हैं, वैसे यदि न्याय से इकट्ठे किये हुए धन से धार्मिक और उत्तम बुद्धिवाले जनों का सत्कार कर उन उक्त मनुष्यों की रक्षा कर इनसे राज्य के कार्य्यों को साधिये और वहाँ मेघ को सूर्य के समान दुष्टों को मार श्रेष्ठों को प्रसन्न रखिये तो आपकी सब ओर से वृद्धि हो ॥२०॥
विषय
प्रजाओं के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( ते ) तेरी वा तेरे ( सुमतयः ) शुभ बुद्धियां और उत्तम बुद्धिमान् पुरुष ( सञ्चक्षे न ) गिने और वर्णन नहीं किये जा सकते । इसी प्रकार हे राजन् ( ते रायः न सञ्चक्षे ) तेरे ऐश्वर्य भी वर्णन, नहीं किये जा सकते। वे वर्णनातीत और गणनातीत हैं। (पूर्वा : उषसः न नूत्नाः) जिस प्रकार नई प्रभात वेलाएं पूर्व की प्रभात वेलाओं के समान ही होती हैं उसी प्रकार (उषसः ) तुझे चाहने वाली प्रजाएं भी ( पूर्वा: न नूत्नाः ) पूर्व प्रजाओं के समान ही नयी भी तुझे चाहें । तू ( मान्यमानं ) मान्य पुरुषों के सत्कार करने वाले ( देवकं ) विद्वान् जनों को ( जघन्थ ) प्राप्त हो और ( मान्यमानं ) अभिमान करने वाले (देवकं) क्षुद्र व्यवहारी, और क्षुद्र कामुक एवं जूआखोर लोगों को (जघन्थ) दण्डित कर । और ( त्मना ) अपने ही सामर्थ्य से ( बृहतः ) बड़े से बड़े के ( शम्बरम् ) मेघ के समान सूर्यवत् शान्तिनाशक आवरण को ( भेत्) छिन्न भिन्न कर । इति सप्तविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
न 'देवक' नांही 'मान्यमान'
पदार्थ
[१] (ये) = जो (गृहात्) = [गृहं प्राप्य सा०] इस शरीररूप गृह को प्राप्त करके, इस शरीर के द्वारा, (त्वाया) = आपकी प्राप्ति की कामना से (प्र अममदुः) = प्रकर्षेण आपका स्तवन करते हैं। वे (पराशरः) = शत्रुओं को सुदूर शीर्ण करनेवाले बनते हैं, (शतयातुः) = शतवर्षपर्यन्त जीवन के मार्ग पर गमनवाले होते हैं, तथा (वसिष्ठः) = उत्तम निवासवाले होते हैं। प्रभु-स्तवन इन्हें शत्रुओं को शीर्ण करने में समर्थ करता है। शत्रुशीर्णता इनके दीर्घ व उत्तम जीवन का कारण बनती है। [२] (ते) = वे व्यक्ति (भोजस्य) = सबका पालन करनेवाले आपके (सख्यम्) = मित्रभाव को (न मृषन्त) = नहीं विस्मृत करते हैं। ये सदा प्रभु का स्मरण करते हुए चलते हैं। (अधा) = अब इन (सूरिभ्यः) = ज्ञानी स्तोताओं के लिये (सुदिना) = उत्तम दिन (व्युच्छान्) = उदित होते हैं, प्राप्त होते हैं [उपगच्छन्ति सा०] । करें। इससे हम शत्रुओं को शीर्ण
भावार्थ
भावार्थ- इस शरीर को प्राप्त करके हम प्रभु का स्तवन करके दीर्घ उत्तम जीवन को प्राप्त करेंगे। प्रभु की मित्रता को कभी न भूलें। इस प्रकार हमारे लिये सदा सुदिन सुलभ होंगे।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा ! जशी पूर्वीची व नवीन प्रभातवेळा सर्वस्वी मंगल करणारी असते तसेच न्यायाने संचित केलेल्या धनाने धार्मिक व उत्तम बुद्धीच्या लोकांचा सत्कार कर. त्यांचे रक्षण करून त्यांच्याकडून राज्यकार्य पूर्ण करून घे व सूर्य जसा मेघाचे हनन करतो तसे दुष्टांना नष्ट करून श्रेष्ठांना प्रसन्न केल्यास सगळीकडून तुझी वृद्धी होईल. ॥ २० ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord ruler of power, honour and excellence, like the beauty, blessedness and grandeur of the dawns old and new, your knowledge and wisdom, ethics and policies and your wealth and excellence cannot be described, since you achieve the adorable light of divinity, shatter the pride and pretence of simulated brilliance, and by your innate power and splendour break the greatest and deepest clouds to bring down showers of rain.
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