ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
अर्णां॑सि चित्पप्रथा॒ना सु॒दास॒ इन्द्रो॑ गा॒धान्य॑कृणोत्सुपा॒रा। शर्ध॑न्तं शि॒म्युमु॒चथ॑स्य॒ नव्यः॒ शापं॒ सिन्धू॑नामकृणो॒दश॑स्तीः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठअर्णां॑सि । चि॒त् । प॒प्र॒था॒ना । सु॒ऽदासे॑ । इन्द्रः॑ । गा॒धानि॑ । अ॒कृ॒णो॒त् । सु॒ऽपा॒रा । शर्ध॑न्तम् । शि॒म्युम् । उ॒चथ॑स्य । नव्यः॑ । शाप॑म् । सिन्धू॑नाम् । अ॒कृ॒णो॒त् । अश॑स्तीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्णांसि चित्पप्रथाना सुदास इन्द्रो गाधान्यकृणोत्सुपारा। शर्धन्तं शिम्युमुचथस्य नव्यः शापं सिन्धूनामकृणोदशस्तीः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठअर्णांसि। चित्। पप्रथाना। सुऽदासे। इन्द्रः। गाधानि। अकृणोत्। सुऽपारा। शर्धन्तम्। शिम्युम्। उचथस्य। नव्यः। शापम्। सिन्धूनाम्। अकृणोत्। अशस्तीः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा किंवत् किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! नव्यस्त्वमिन्द्रश्चित् सुदासे पप्रथाना अर्णांसि गाधानि सुपाराऽकृणोत् सिन्धूनामशस्तीरकृणोत् तथोचथस्य शर्धन्तं शिम्युं प्रति शापं कुर्याः ॥५॥
पदार्थः
(अर्णांसि) उदकानि (चित्) इव (पप्रथाना) विस्तीर्णानि (सुदासे) सुष्ठु दातव्ये व्यवहारे (इन्द्रः) सूर्यो विद्युद्वा (गाधानि) परिमितानि (अकृणोत्) करोति (सुपारा) सुखेन पारं गन्तुं योग्यानि (शर्धन्तम्) बलं कुर्वन्तम् (शिम्युम्) आत्मनः शिमिकर्म कामयमानम्। शिमीति कर्मनाम। (निघं०२.१)। (उचथस्य) वक्तुं योग्यस्य (नव्यः) नवेषु भवः (शापम्) शपन्त्याक्रुश्यन्ति येन तम् (सिन्धूनाम्) नदीनाम् (अकृणोत्) करोति (अशस्तीः) अप्रशंसिता निरुदकाः ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे राजन् यथा सूर्यो विद्युद्वा समुद्रस्थान्यपि जलानि सुखेन पारं गन्तुं योग्यानि करोति तथैव व्यवहारान् परिमितान् सुगमान् कृत्वा दुष्टनाशनं श्रेष्ठसम्मानं विधाय दुष्टानामधर्म्याः क्रिया निन्दितास्त्वं सदा कुर्याः ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (नव्यः) नवीनों में प्रसिद्ध आप (इन्द्रः) सूर्य वा बिजुली (चित्) के समान (सुदासे) सुन्दर देने योग्य व्यवहार में (पप्रथाना) विस्तीर्ण (अर्णांसि) जल जो (गाधानि) परिमित हैं उनको (सुपारा) सुन्दरता से पार जाने योग्य (अकृणोत्) करते हैं (सिन्धूनाम्) नदियों को (अशस्तीः) अप्रशंसित जलरहित (अकृणोत्) करते हैं, वैसे (उचथस्य) कहने योग्य (शर्धन्तम्) बल करते हुए (शिम्युम्) अपने को कर्म की कामना करनेवाले के प्रति (शापम्) शाप अर्थात् जिससे दण्ड देते हैं, ऐसे काम को करें ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे राजा ! जैसे सूर्य वा बिजुली समुद्रस्थ जलों को सुख से पार जाने योग्य करता है, वैसे ही व्यवहारों को भी परिमाण युक्त और सुगम कर दुष्टों का नाश और श्रेष्ठों का सम्मान कर दुष्टों की अधर्म क्रियाओं को निन्दित आप सदा करें ॥५॥
विषय
राजा गोपति ।
भावार्थ
( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् और शत्रुनाशक राजा ( सुदासे ) उत्तम करप्रद प्रजाजन के लिये वा उत्तम देने लेने के व्यवहार के लिये ( पप्रथाना अर्णांसि ) दूर तक फैले जलों को भी सेतु, नौकादि द्वारा (गाधानि) परिमित एवं ( सुपारा ) सुख से पार जाने योग्य (अकृणोत् ) करे । वह ( नव्यः ) स्तुति योग्य राजा ( सिन्धूनां ) नदियों के समान प्रवाह से चलने वाली, एवं उत्तम प्रबन्ध से बंधी प्रजाओं में से ( शर्धन्तं ) बलात्कार करते हुए ( शिम्युम् ) कर्म करने वाले को ( उचथस्य ) आज्ञा वचन कहने वाले के आगे ( शापं ) शाप अर्थात् आक्रोश या दुर्वचन कहने योग्य, निन्दनीय करे । और (अशस्ती:) निन्दित लोगों को ( अकृणोत् ) दण्ड दे । अर्थात् जो 'शिम्यु' कर्मकर है वह यदि 'उचथ' अर्थात् अपने ऊपर आज्ञा देने वाले के समक्ष ( शर्धन्तं ) बल दिखावे, आज्ञा का पालन न करके उल्लंघन करे तो वह 'शाप' अर्थात् कठोर वचनों का पात्र हो, वह डांटा जाय, और दण्डं भी पावे, इसी प्रकार प्रजाओं में (अशस्ती:) निन्दित लोगों को भी राजा दण्ड दे । अन्न ( अकृणोत् ) करे। इति चतुर्विंशो वर्गः ।।
टिप्पणी
कृङ् हिंसायाम् इत्यस्य रूपम् ।।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
'शर्धन्-शिम्यु व शाप' का विनाश
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = वह सर्वशक्तिमान् प्रभु-ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाला प्रभु (सिन्धूनाम्) = ज्ञान नदियों के (पप्रथाना) = अतिशयेन विस्तृत (चित्) = भी (अर्णांसि) = ज्ञानजलों को सुदासे प्रभु के प्रति अपने को दे डालनेवाले व्यक्ति के लिये (गाधानि) = न गहरे व (सुपारा) = [सुखेन तर्तुं योग्य] सुख से तरणीय (अकृणोत्) = कर देते हैं। 'सुदास्' का ज्ञान गहरा न हो, सो नहीं, पर उसके लिए अगाध भी ये ज्ञान-जल गाध व तरणीय हो जाते हैं। [२] वह (नव्यः) = स्तुत्य प्रभु (उचथस्य) = स्तोता को (अशस्ती:) = सब अशस्तियों को-अशुभ बातों को (अकृणोत्) = हिंसित कर देते हैं। (शर्धन्तम्) = हिंसित करनेवाली काम-वासना को विनष्ट करते हैं। (शिम्युम्) = हर समय धन प्राप्ति के कार्यों की कामना करनेवाली लोभवृत्ति को विनष्ट करते हैं। (शापम्) = क्रोध में उच्चरित आक्रोश वचनों को नष्ट कर देते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-प्रभु-प्रभु के प्रति अर्पण करनेवाले के लिये ज्ञान-जलों को सुतर कर देते हैं, अर्थात् उनके लिये ज्ञान प्राप्ति को सुलभ कर देते हैं। स्तोता के 'काम-क्रोध व लोभ' को विनष्ट करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! जसा सूर्य किंवा विद्युत समुद्रातील जल सुखपूर्वक पलीकडे जाण्यायोग्य करतात तसेच व्यवहारांना परिमाणयुक्त व सुलभ करून तू दुष्टांचा नाश व श्रेष्ठांचा सन्मान करून दुष्टांच्या अधार्मिक कृत्याची सदैव निंदा कर. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, brilliant ruler, rising anew like the sun, controls and bounds overflooded expansive waters into fordable limits for comfortable movement of business, converts the violent to peaceable beneficence, silences the imprecations of the vociferous and controls the erratic behaviour of the rivers and the seas.
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