ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 9
ई॒युरर्थं॒ न न्य॒र्थं परु॑ष्णीमा॒शुश्च॒नेद॑भिपि॒त्वं ज॑गाम। सु॒दास॒ इन्द्रः॑ सु॒तुकाँ॑ अ॒मित्रा॒नर॑न्धय॒न्मानु॑षे॒ वध्रि॑वाचः ॥९॥
स्वर सहित पद पाठई॒युः । अर्थ॑म् । न । नि॒ऽअ॒र्थम् । परु॑ष्णीम् । आ॒शुः । च॒न । इत् । आ॒भि॒ऽपि॒त्वम् । ज॒गा॒म॒ । सु॒ऽदासे॑ । इन्द्रः॑ । सु॒ऽतुका॑न् । अ॒मित्रा॑न् । अर॑न्धयत् । मानु॑षे । वध्रि॑ऽवाचः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईयुरर्थं न न्यर्थं परुष्णीमाशुश्चनेदभिपित्वं जगाम। सुदास इन्द्रः सुतुकाँ अमित्रानरन्धयन्मानुषे वध्रिवाचः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठईयुः। अर्थम्। न। निऽअर्थम्। परुष्णीम्। आशुः। चन। इत्। आभिऽपित्वम्। जगाम। सुऽदासे। इन्द्रः। सुऽतुकान्। अमित्रान्। अरन्धयत्। मानुषे। वध्रिऽवाचः ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
यथा सुदास इन्द्रोऽर्थं न न्यर्थमाशुः सन् परुष्णीं चनाऽभिपित्वं जगामाऽमित्रानरन्धयन्मानुषे वध्रिवाचः सुतुकान् रक्षन्ति तथेतरेऽपि मनुष्यास्तदिदीयुः ॥९॥
पदार्थः
(ईयुः) प्राप्नुयुः (अर्थम्) द्रव्यम् (न) इव (न्यर्थम्) निश्चितोऽर्थो यस्मिँस्तम् (परुष्णीम्) पालिकां नीतिम् (आशुः) सद्यः (चन) अपि (इत्) एव (अभिपित्वम्) प्राप्यम् (जगाम) (सुदासः) शोभनानि दानानि यस्य सः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (सुतुकान्) शोभनानि तुकान्यपत्यानि येषां तान् (अमित्रान्) मित्रतारहितान् (अरन्धयत्) हिंस्यात् (मानुषे) मनुष्याणामस्मिन् सङ्ग्रामे (वध्रिवाचः) वध्रयो वर्धिका वाचो येषां ते ॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजजना ! यथा न्यायाधीशो राजा न्यायेन प्राप्तं गृह्णात्यन्यायजन्यं त्यजति श्रेष्ठान् संरक्ष्य दुष्टान् दण्डयति स एवोत्तमो भवति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जैसे (सुदासः) सुन्दर दान जिसके विद्यमान वह (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (अर्थम्) द्रव्य के (न) समान (न्यर्थम्) निश्चित अर्थवाले को (आशुः) शीघ्रकारी होता हुआ (परुष्णीम्) पालना करनेवाली नीति को (चन) भी (अभिपित्वम्) और प्राप्त होने योग्य पदार्थ को (जगाम) प्राप्त होता है (अमित्रान्) मित्रता रहित अर्थात् शत्रुओं को (अरन्धयत्) नष्ट करे और (मानुषे) मनुष्यों के इस संग्राम में (वध्रिवाचः) जिनकी वृद्धि देनेवाली वाणी वे (सुतुकान्) सुन्दर जिनके सन्तान है उनकी रक्षा करते हैं और भी मनुष्य (इत्) उसको (ईयुः) प्राप्त हों ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे राजजनो ! जैसे न्यायाधीश राजा न्याय से प्राप्त पदार्थ को लेता और अन्याय से उत्पन्न हुए पदार्थ को छोड़ता तथा श्रेष्ठों की सम्यक् रक्षा कर दुष्टों को दण्ड देता है, वही उत्तम होता है ॥९॥
विषय
वशी राजा के सत्फल ।
भावार्थ
( यत् ) जब ( सुदासः ) उत्तम भृत्य वाला ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ( मानुषे ) बहुत मनुष्यों से करने योग्य संग्रामों में ( वध्रिवाचः ) हिंसायुक्त, परुष भाषण करने वाले ( सु-तुकान् ) खूब हिंसक (अमित्रान् ) शत्रुओं को (अरन्धयत् ) दण्डित करता और वश करता है और इसी प्रकार वह राजा ( मानुषे ) मनुष्यों से बसे इस राष्ट्र में (वध्रि-वाचः) निर्बल वाणियों वाले, वा वृद्धिकारक उत्तम विद्वानों और ( सु-तुकान् ) उत्तम बालक, व पुत्रों वाले प्रजाजनों को ( अरन्धयत् ) वश करता है । तब वह ( आशुः ) शीघ्रकारी होकर ( अभिपित्वं ) अपने प्राप्त होने योग्य लक्ष्य वा अभिमत ऐश्वर्य को ( जगाम ) प्राप्त करता है । तब ही सब लोग भी ( अर्थं न ) अपने इष्ट धन के समान ( न्यर्थं ) निश्चित लक्ष्य को और ( परुष्णीम् ) पालक नीति और दीप्तियुक्त तीक्ष्णदण्ड नीति को ( ईयुः ) प्राप्त होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
अर्थं, नकि न्यर्थम् [ईयुः]
पदार्थ
[१] (अर्थम् ईयुः) = सप्तम मन्त्र के उपासक लोग गन्तव्य मार्ग की ओर ही जाते हैं। (न्यर्थम्) = निम्न मार्ग की ओर (न) [ईयु:] = नहीं जाते। (परुष्णीम्) = पालक नीति मार्ग को (आशुः) = [अश्नुते] व्याप्त करनेवाला यह उपासक (चन इत्) = (ही) = निश्चय से (अभिपित्वम्) = अभिप्राप्तव्य स्थान की ओर (जगाम) = जाता है। हमें सदा उत्कृष्ट मार्ग की ओर चलना है, निम्न मार्ग की ओर नहीं जाना। नीति मार्ग का आक्रमण करते हुए हम सदा लक्ष्य-स्थान की ओर आगे बढ़ें। [२] ऐसे (सुदासे) = सम्यक्तया काम-क्रोध आदि का उपक्षय करनेवाले उपासक के लिये (इन्द्रः) = वे शत्रुविनाशक प्रभु (सुतुकान्) = अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त भी (अमित्रान्) = शत्रुओं को (अरन्धयत्) = विनष्ट करते हैं। प्रभु इस (मानुषे) = मानुष लोक में (वधिवाच:) = व्यर्थ की वाणीवालों को जल्पकों को विनष्ट कर देते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम मार्ग पर चलें, अमार्ग पर नहीं। पालक नीति मार्ग का ही व्यापन करें। प्रभु हमारे लिये प्रबल शत्रुओं को भी विनष्ट करेंगे। प्रभु जल्पकों को कभी नहीं चाहते।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजजनांनो! जसा न्यायाधीश राजा न्यायाने प्राप्त होणारे पदार्थ घेतो व अन्यायाने प्राप्त होणाऱ्या पदार्थांचा त्याग करतो, श्रेष्ठांचे रक्षण करून दुष्टांना दंड देतो तोच उत्तम असतो. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When Indra, generous ruler and commander equipped fully with assistant forces, overcomes unfriendly powers and evil voices rampant in society and thus reaches his target of correction and achievement in the daily business of life’s governance and administration including the optimum means of sustenance and development, the people too realise the ends of his universal policy and achieve their goals of life in definiteness without any delay.
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