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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    शश्व॑न्तो॒ हि शत्र॑वो रार॒धुष्टे॑ भे॒दस्य॑ चि॒च्छर्ध॑तो विन्द॒ रन्धि॑म्। मर्ताँ॒ एनः॑ स्तुव॒तो यः कृ॒णोति॑ ति॒ग्मं तस्मि॒न्नि ज॑हि॒ वज्र॑मिन्द्र ॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शश्व॑न्तः । हि । शत्र॑वः । र॒र॒धुः । ते॒ । भे॒दस्य॑ । चि॒त् । शर्ध॑तः । वि॒न्द॒ । रन्धि॑म् । मर्ता॑न् । एनः॑ । स्तु॒व॒तः । यः । कृ॒णोति॑ । ति॒ग्मम् । तस्मि॑न् । नि । ज॒हि॒ । वज्र॑म् । इ॒न्द्र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शश्वन्तो हि शत्रवो रारधुष्टे भेदस्य चिच्छर्धतो विन्द रन्धिम्। मर्ताँ एनः स्तुवतो यः कृणोति तिग्मं तस्मिन्नि जहि वज्रमिन्द्र ॥१८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शश्वन्तः। हि। शत्रवः। ररधुः। ते। भेदस्य। चित्। शर्धतः। विन्द। रन्धिम्। मर्तान्। एनः। स्तुवतः। यः। कृणोति। तिग्मम्। तस्मिन्। नि। जहि। वज्रम्। इन्द्र ॥१८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 18
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैस्सदा शत्रुभावप्रयुक्ता वारणीया इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! ये हि शश्वन्तः शत्रवस्ते स्तुवतो मर्त्तान् रारधुः ये भेदस्य शर्धतो रन्धिञ्चिद्विन्द य एनः हिंसां कृणोति तस्मिन् तेषु च तिग्मं वज्रं निजहि निपातय ॥१८॥

    पदार्थः

    (शश्वन्तः) निरन्तरः (हि) यतः (शत्रवः) (रारधुः) हिंसन्ति (ते) (भेदस्य) विदारणस्य द्वैधीभावस्य (चित्) अपि (शर्धतः) बलवतः (विन्द) लभेरन् (रन्धिम्) वशीकरम् (मर्त्तान्) मनुष्यान् (एनः) प्रापकः (स्तुवतः) स्तावकान् (यः) (कृणोति) (तिग्मम्) तीव्रगुणकर्मस्वभावम् (तस्मिन्) सङ्ग्रामे (नि) (जहि) त्यज (वज्रम्) शस्त्रास्त्रम् (इन्द्र) शत्रुविदारक ॥१८॥

    भावार्थः

    हे राजादयो धार्मिका जना ! ये सर्वदा शत्रुभावयुक्ता धार्मिकान् हिंसन्तस्सन्ति तान् सद्यो घ्नत येन सर्वत्र सर्वेषामभयसुखे वर्द्धेयाताम् ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को सदा शत्रुपन से युक्त निवारने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं को विदीर्ण करनेवाले ! जो (हि) निश्चय से (शश्वन्तः) निरन्तर (शत्रवः) शत्रुजन हैं (ते) वे (स्तुवतः) स्तुति करते हुए (मर्तान्) मनुष्यों को (रारधुः) मारते हैं जो (भेदस्य, शर्धतः) बलवान् भेद के (रन्धिम्) वश करने को (चित्) ही (विन्द) प्राप्त हों (यः) जो (एनः) पहुँचानेवाला हिंसा (कृणोति) करता है (तस्मिन्) उसके और उन पिछलों के निमित्त भी (तिग्मम्) तीव्र गुण-कर्म-स्वभाववाले (वज्रम्) शस्त्र और अस्त्र को (नि, जहि) निरन्तर छोड़ो ॥१८॥

    भावार्थ

    हे राजन् आदि धार्मिक जनो ! जो सर्वदा शत्रुभावयुक्त और धार्मिक जनों को नष्ट करते हुए विद्यमान हैं, उनको शीघ्र मारो, जिससे सब जगह सबके अभय और सुख बढ़ें ॥१८॥

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    विषय

    अधीनस्थों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! ( ते ) तेरे ( शश्वन्तः शत्रवः ) सदा के शत्रु लोग ( शर्धतः ) बलवान् ( भेदस्य ) भेद नीति में कुशल ( ते ) तेरे अधीन ( रारधुः ) वश हों । और तेरे ही द्वारा वे ( रन्धिं विन्द ) विनाश को प्राप्त हों और ( यः ) जो ( स्तुवतः ) प्रार्थना स्तुति आदि करते हुए ( मर्त्तान् ) मनुष्यों अथवा ( मर्त्तान् स्तुवतः ) मनुष्यों के प्रति उत्तम उपदेश करते हुए विद्वान् पुरुषों के प्रति ( एनः कृणोति) पाप, अपराध करता ( तस्मिन् ) उस दुष्ट पुरुष पर भी हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ! ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! तू ( वज्रं जहि ) शस्त्र या दण्ड का प्रयोग कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    उपासना व शत्रुशातकशक्ति लाभ

    पदार्थ

    [१](शश्वन्तः) = बड़ी प्लुतगतिवाले व संख्या में बहुत [बहवः] भी (शत्रवः) = शत्रु (ते) = तेरे (रारधुः हि) = निश्चय से वश में हो जाते हैं। उपासना के होने पर उपासक प्रभु के बल से बलसम्पन्न होता है और इन काम-क्रोध आदि प्रबल शत्रुओं को भी जीत पाता है। इस प्रभु की उपासना से तू (शधतः) = हिंसन करते हुए (मेदस्य) = विदारक शत्रु के (रन्धिम्) = वशीकरण को विन्द प्राप्त कर । प्रभु का अनुग्रह तुझे इस भेद के- विदारक शत्रु के वश करने में समर्थ करे। [२] हे (इन्द्र) = शत्रु विदारक प्रभो ! (यः) = जो भी (स्तुवतः मर्तान्) = स्तुति करते हुए मनुष्यों के प्रति (एनः) = पाप को (कृणोति) = करता है, (तस्मिन्) = उस पर तू (तिग्मं वज्रम्) = तीव्र वज्र को निजहि आहत कर, वज्र के द्वारा उसका विनाश करनेवाला हो । प्रभु अपने स्तोता के शत्रु को विनष्ट करते हैं। हम प्रभु के अनुग्रह से ही काम-क्रोध-लोभ आदि आन्तर शत्रुओं को शीर्ण कर पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की उपासना ही हमें काम-क्रोध-लोभ आदि आन्तर शत्रुओं को शीर्ण करने में समर्थ करती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा इत्यादी धार्मिक लोकांनो ! जे सदैव शत्रुभावाने युक्त असून धार्मिक लोकांना नष्ट करतात त्यांना शीघ्र नष्ट करा. ज्यामुळे सर्वत्र सर्वांना अभय मिळून सुख वाढेल. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord destroyer of division, opposition and hostility, let your persistent enemies be subdued relentlessly. Let the persistent purveyors of division and dissidence be brought to justice. And whoever does evil and violence to the supportive and celebrative people among humanity, strike the sharp and instant bolt of justice upon them.

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