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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अध॑ श्रु॒तं क॒वषं॑ वृ॒द्धम॒प्स्वनु॑ द्रु॒ह्युं नि वृ॑ण॒ग्वज्र॑बाहुः। वृ॒णा॒ना अत्र॑ स॒ख्याय॑ स॒ख्यं त्वा॒यन्तो॒ ये अम॑द॒न्ननु॑ त्वा ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । श्रु॒तम् । क॒वष॑म् । वृ॒द्धम् । अ॒प्ऽसु । अनु॑ । द्रु॒ह्युम् । नि । वृ॒ण॒क् । वज्र॑ऽबाहुः । वृ॒णा॒नाः । अत्र॑ । स॒ख्याय॑ । स॒ख्यम् । त्वा॒ऽयन्तः॑ । ये । अम॑दन् । अनु॑ । त्वा॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध श्रुतं कवषं वृद्धमप्स्वनु द्रुह्युं नि वृणग्वज्रबाहुः। वृणाना अत्र सख्याय सख्यं त्वायन्तो ये अमदन्ननु त्वा ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। श्रुतम्। कवषम्। वृद्धम्। अप्ऽसु। अनु। द्रुह्युम्। नि। वृणक्। वज्रऽबाहुः। वृणानाः। अत्र। सख्याय। सख्यम्। त्वाऽयन्तः। ये। अमदन्। अनु। त्वा ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 12
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजामात्याः प्रजापुरुषाश्च परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! येऽत्र सख्याय सख्यं वृणानास्त्वायन्तो धार्मिका विद्वांसस्त्वान्वमदनध तैः यच्छ्रुतं तेषां मध्ये कवषं वृद्धं द्रुह्युं यो वज्रबाहुः नि वृणक् अप्स्वनुवृणक् तांस्तं च सर्वे सत्कुर्वन्तु ॥१२॥

    पदार्थः

    (अध) अथ (श्रुतम्) (कवषम्) उपदेशकम् (वृद्धम्) वयोविद्याभ्यामधिकम् (अप्सु) जलेषु (अनु) (द्रुह्युम्) यो द्रोग्धि तम् (नि) (वृणक्) वृणक्ति (वज्रबाहुः) शस्त्रपाणिः (वृणानाः) स्वीकुर्वाणाः (अत्र) (सख्याय) मित्रत्वाय (सख्यम्) मित्रभावम् (त्वायन्तः) त्वां कामयमानाः (ये) (अमदन्) मदन्ति हर्षन्ति (अनु) (त्वा) त्वाम् ॥१२॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! ये तयानुकूला वर्तन्ते येषां चानुकूलो भवान् वर्तते ते सर्वे सखायो भूत्वा न्यायेन पुत्रवत् प्रजास्सम्पाल्यानन्दं भुञ्जीरन् ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा अमात्य और प्रजा पुरुष परस्पर कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! (ये) जो (अत्र) यहाँ (सख्याय) मित्रता के लिये (सख्यम्) मित्रपन को (वृणानाः) स्वीकार करते और (त्वायन्तः) तुम्हारी चाह करते हुए धार्मिक विद्वान् पुरुष (त्वा) तुमको (अनु, अमदन्) आनन्दित करते हैं (अध) इसके अनन्तर उनसे जिस कारण (श्रुतम्) सुना इस कारण उनमें से (कवषम्) उपदेश करनेवाले (वृद्धम्) अवस्था और विद्या से अधिक को और (द्रुह्युम्) दुष्टों से द्रोह करनेवाले को जो (वज्रबाहुः) शास्त्रों को हाथों में रखनेवाला (निवृणक्) निरन्तर विवेक से स्वीकार करता और (अप्सु) जलों में (अनु) अनुकूलता से स्वीकार करता है, उन सबको वा उसको सब सत्कार करें ॥१२॥

    भावार्थ

    हे राजा ! जो आपके अनुकूल वर्त्तमान हैं, जिनके अनुकूल आप हैं, वे सब मित्र मित्र होकर न्याय से पुत्र के समान पालन कर आनन्द भोगें ॥१२॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( अत्र ) इस राष्ट्र या लोक में हे राजन् ! ( ये ) जो ( त्वायन्तः ) तेरी चाहना करते हुए, ( त्वा सख्यं ) तुझ मित्र को ( सख्याय ) अपना मित्र बनाने के लिये ( वृणाना: ) चुनते हुए (त्वा अनु अमदन ) तेरी ही प्रसन्नता में प्रसन्न होते हैं ( अध) तू भी ( वज्र बाहुः ) 'बज्र' अर्थात् शस्त्रास्त्र बल और वीर्य को बाहुओं में धारण करता हुआ ( अप्सु ) आप्त प्रजाओं के बीच में ( श्रुतं ) प्रसिद्ध, बहुश्रुत, (कवषं ) उपदेष्टा, विद्वान् ( वृद्धम् ) विद्या वयोवृद्ध पुरुष को ( अनु वृणक् ) अपने अनुकूल करता, उसके हृदय को प्रसन्न करता और (द्रुह्युम् निवृणक् ) द्रोह करने वाले को दूर करता है ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    श्रुत-कवष-अप्सुवृद्ध-द्रुह्यु'

    पदार्थ

    [१] (अध) = अब (श्रुतम्) = जिसने गहन शास्त्र श्रवण किया है, (कवषम्) = जो प्रभु के गुण स्तवन को करता है [कु शब्दे], (अप्सु वृद्धम्) = जो कर्मों में खूब बढ़ा हुआ है और (अनु) = कर्मों के अनुपात में ही (द्रुह्युम्) = वासनाओं की जिघांसावाला है, वासनाओं को समाप्त करनेवाला है। ऐसे व्यक्ति को (वज्रबाहुः) = वे वज्रहस्त प्रभु (निवृणक्) = सब पापों से पृथक् कर देते हैं, पवित्र जीवनवाला बना देते हैं। [२] (अत्र) = यहाँ इस जीवन में (सख्यम्) = आपकी मित्रता का (वृणाना:) = वरण करते हुए (संख्याय) = मित्रता के लिये (ये) = जो (त्वायन्तः) = आपकी ओर आने की कामनावाले होते हैं, वे (त्वा अनु) = आपकी अनुकूलता में (अमदन्) = हर्ष का अनुभव करते हैं। संसार में अन्ततः प्रभु की मैत्री ही आनन्द प्राप्ति का साधन होती है। प्रकृति में लगाव अन्ततः ह्रास की ओर ले जाता है। प्रभु की मित्रता का मार्ग 'श्रुत, कवष, अप्सु, वृद्ध व द्रुह्यु' बनना ही है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम शास्त्र श्रवण करें, प्रभु स्तवन में प्रवृत्त हों, कर्मों में सदा बढ़े हुए व वासनाओं की जिघांसावाले बनें। इस प्रकार प्रभु की मित्रता का वरण करते हुए आनन्द का अनुभव करें। [श्रुतं = ब्रह्मचर्य, कवषं = गृहस्थ, वृद्धं अप्सु - वानप्रस्थ, द्रुह्यु= संन्यास] ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा! जे तुझ्या अनुकूल वागतात तूही त्यांच्या अनुकूल वाग. सर्वांनी परस्पर मित्र बनून न्यायाने पुत्राप्रमाणे पालन करून आनंद भोगावा. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The lord of thunder power and justice engages the scholar, the teacher, the senior and even the jealous critic and opponent into the thick of social action, choosing some positively and others to weed out negativity. Thus they too, O ruler, opt for you, some opting for you as a friend for friendship, and others to be with you and around, but all in order to be happy and joyous in consonance with you.

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