ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
धे॒नुं न त्वा॑ सू॒यव॑से॒ दुदु॑क्ष॒न्नुप॒ ब्रह्मा॑णि ससृजे॒ वसि॑ष्ठः। त्वामिन्मे॒ गोप॑तिं॒ विश्व॑ आ॒हा न॒ इन्द्रः॑ सुम॒तिं ग॒न्त्वच्छ॑ ॥४॥
स्वर सहित पद पाठधे॒नुम् । न । त्वा॒ । सु॒ऽयव॑से । दुधु॑क्षन् । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । स॒सृ॒जे॒ । वसि॑ष्ठः । त्वाम् । इत् । मे॒ । गोऽप॑तिम् । विश्वः॑ । आ॒ह॒ । आ । नः॒ । इन्द्रः॑ । सु॒ऽम॒तिम् । ग॒न्तु॒ । अच्छ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धेनुं न त्वा सूयवसे दुदुक्षन्नुप ब्रह्माणि ससृजे वसिष्ठः। त्वामिन्मे गोपतिं विश्व आहा न इन्द्रः सुमतिं गन्त्वच्छ ॥४॥
स्वर रहित पद पाठधेनुम्। न। त्वा। सुऽयवसे। दुधुक्षन्। उप। ब्रह्माणि। ससृजे। वसिष्ठः। त्वाम्। इत्। मे। गोऽपतिम्। विश्वः। आह। आ। नः। इन्द्रः। सुऽमतिम्। गन्तु। अच्छ ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
राजा सर्वसम्मत्या राजशासनं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यो वसिष्ठः सूयवसे धेनुं न त्वा दुदुक्षन् ब्रह्माण्युप ससृजे मे गोपतिं त्वां विश्वो जनो यदाहतामिन्नः सुमतिमिन्द्रो भवानच्छा गन्तु ॥४॥
पदार्थः
(धेनुम्) दुग्धदात्री गौः (न) इव (त्वा) त्वाम् (सूयवसे) शोभने भक्षणीये घासे। अत्रान्येषामपीत्याद्यचो दीर्घः। (दुदुक्षन्) कामान् प्रपूरयन् (उप) (ब्रह्माणि) महान्त्यन्नानि धनानि वा (ससृजे) सृजति (वसिष्ठः) अतिशयेन वसुः (त्वाम्) (इत्) (मे) मम (गोपतिम्) गवां पालकम् (विश्वः) सर्वो जनः (आह) ब्रूयात् (आ) (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तो राजा (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (गन्तु) गच्छतु प्राप्नोतु (अच्छ) सम्यक् ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे राजन् ! यदि भवानस्माकं विदुषां सम्मतौ वर्तित्वा राज्यशासनं कुर्याद्यः कश्चित्प्रजाजनः स्वकीयं सुखदुःखप्रकाशकं वचः श्रावयेत्तत्सर्वं श्रुत्वा यथावत्समादध्यात्तर्हि भवन्तं सर्वे वयं गौर्दुग्धेनेव राज्यैश्वर्येणोन्नतं कुर्याम ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
राजा सर्वसम्मति से राजशासन करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! जो (वसिष्ठः) अतीव धन (सूयवसे) सुन्दर भक्षण करने योग्य घास के निमित्त (धेनुम्) गौ की (न) जैसे वैसे (त्वा) तुम्हें (दुदुक्षन्) कामों से परिपूर्ण करता हुआ (ब्रह्माणि) बहुत अन्न वा धनों को (उप, ससृजे) सिद्ध करता है (मे) मेरी (गोपतिम्) इन्द्रियों की पालना करनेवाले (त्वाम्) तुम्हें (विश्वः) सब जन जो (आह) कहे (इत्) उसी (नः) हमारी (सुमतिम्) सुन्दर मति को (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्त राजा आप (अच्छ, आ, गन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । यदि आप हम लोगों को विद्वानों की सम्मति में वर्त्तकर राज्यशासन करें वा जो कोई प्रजा जन स्वकीय सुख दुःख प्रकाश करनेवाले वचन को सुनावे, उस सब को सुन कर यथावत् समाधान दें तो आप को सब हम लोग गौ दूध से जैसे, वैसे राज्यैश्वर्य से उन्नत करें ॥४॥
विषय
उत्तम राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( सुयवसे धेनुं न दुदुक्षन् ) उत्तम अन्न, चारे आदि के ऊपर गौ का पालक गौ को खूब दुहने की इच्छा करता है इसी प्रकार हे राजन् ! ( वसिष्ठः ) राज्य में बसने वाला उत्तम प्रजाजन (सूयवसे) उत्तम अन्न सम्पदा के निमित्त (त्वा) तुझ को गौ के समान (दुदुक्षन्) दोहने, अर्थात् तुझ से बहुत सा ऐश्वर्य लेने वा तुझे समृद्धि से पूर्ण करना चाहता हुआ (ब्रह्माणि ) नाना बल, धन, अन्न और ज्ञान ( उप ससृजे ) उत्पन्न करता, प्राप्त करता है । अर्थात् स्वामी राजा से ऐश्वर्य प्राप्त करने और राजा को समृद्ध करने के लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्ग क्रम से नाना प्रकार के ज्ञानों, धनों, बलों और अन्नों को उत्पन्न करें । हे स्वामिन् ! (विश्व:) समस्त जन ( त्वाम् इत् ) तुझ को ही ( मे गोपतिम्) मेरा 'गोपति', भूमिपति ( आह ) कहे । ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा (नः) हमारे ( सुमतिं ) उत्तम सम्मति को ( अच्छ गन्तु ) अच्छी प्रकार प्राप्त करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
गोपति से सुमति का भिक्षण
पदार्थ
[१] (सूयवसे) = उत्तम नृणादिक के होने पर (न) = जैसे (धेनुम्) = गौ को दोहते हैं, उसी प्रकार (त्वा) = आपके (दुदुक्षन्) = दोहन की कामनावाला होता हुआ (वसिष्ठः) = यह उत्तम निवासवाला, शत्रुओं को वश में करनेवाला वसिष्ठ (ब्रह्माणि) = इन स्तोत्रों को (उपससृजे) = उपसृष्ट [उच्चरित] करता है। स्तोत्रों को करता हुआ आपका प्रिय बनता है और सब उन्नति साधक पदार्थों का दोहन करता है। (विश्वः) = सब (मे) = मेरे लिये (त्वां इत्) = आपको ही (गोपतिं) = सब गौओं के स्वामी के रूप में (आह) = कहता है। आपकी उपासना करता हुआ ही मैं गौवों का स्वामी बन पाऊँगा। गौएँ इन्द्रियाँ हैं। इन इन्द्रियों का वशीकरण आपकी उपासना से ही होता है। इसलिए हमारी यही कामना है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु, सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु (नः अच्छ) = हमारे लिये हमारी ओर (सुमतिं गन्तु) = सुमति को प्राप्त करायें। कल्याणी मति को प्राप्त करके शुभ मार्ग पर चलते हुए हम शुभ को ही प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ- स्तवन द्वारा प्रभु के प्रिय बनकर हम प्रभु से सब शुभों को प्राप्त करें। प्रभु का उपासन हमें इन्द्रियों का स्वामी बनायेगा। प्रभु हमें सुमति प्राप्त करायेंगे।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा ! जर तू विद्वानांच्या संमतीने वागून आमच्यावर राज्य केलेस किंवा जर कोणी प्रजाजन स्वकीयांचे सुख-दुःख ऐकवतील तर ते ऐकून यथावत उत्तर दिलेस तर गाय जशी दुधाने समृद्ध करते तसे आम्ही सर्व लोक तुला राज्यैश्वर्याने उन्नत करू. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
As a shepherd goes to the cow in a rich pasture for good milk, so the man of peace and enlightenment approaches you seeking fulfilment and creates songs of appreciation in praise of your policy and performance as a ruler. Indra, O lord ruler of the world, the whole world calls you the preserver, defender and promoter of the earth and her social order for me, and I pray you enjoy the favour and goodwill of the people for our sake.
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