ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 15
इन्द्रे॑णै॒ते तृत्स॑वो॒ वेवि॑षाणा॒ आपो॒ न सृ॒ष्टा अ॑धवन्त॒ नीचीः॑। दु॒र्मि॒त्रासः॑ प्रकल॒विन्मिमा॑ना ज॒हुर्विश्वा॑नि॒ भोज॑ना सु॒दासे॑ ॥१५॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । ए॒ते । तृत्स॑वः । वेवि॑षाणाः । आपः॑ । न । सृ॒ष्टाः । अ॒ध॒व॒न्त॒ । नीचीः॑ । दुः॒ऽमि॒त्रासः॑ । प्र॒क॒ल॒ऽवित् । मिमा॑नाः । ज॒हुः । विश्वा॑नि । भोज॑ना । सु॒ऽदासे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेणैते तृत्सवो वेविषाणा आपो न सृष्टा अधवन्त नीचीः। दुर्मित्रासः प्रकलविन्मिमाना जहुर्विश्वानि भोजना सुदासे ॥१५॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण। एते। तृत्सवः। वेविषाणाः। आपः। न। सृष्टाः। अधवन्त। नीचीः। दुःऽमित्रासः। प्रकलऽवित्। मिमानाः। जहुः। विश्वानि। भोजना। सुऽदासे ॥१५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 15
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
केन सह के किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
य एत इन्द्रेण सहितास्तृत्सवो वेविषाणा आपो न सृष्टा विश्वानि भोजना मिमानास्सन्तो ये दुर्मित्रासः स्युस्तेषां याः सेनाः ता नीचीरधवन्त तेषामुपरि शस्त्रास्त्राणि जहुर्यश्चेन्द्रः सुदासे प्रकलविदस्ति ते सर्वे विजयभाजो भवन्ति ॥१५॥
पदार्थः
(इन्द्रेण) परमैश्वर्येण युक्तेन राज्ञा सह (एते) पूर्वोक्ता वीराः (तृत्सवः) शत्रूणां हिंसकाः (वेविषाणाः) शत्रुबलानि व्याप्नुवन्तः (आपः) जलानि (न) इव (सृष्टाः) शत्रूणामुपरि नियताः कृताः (अधवन्त) धुन्वन्ति (नीचीः) अधोगताः (दुर्मित्रासः) दुष्टा मित्राः सखायो येषां ते (प्रकलवित्) यः प्रकृष्टं कलनं संख्यां वेत्ति सः (मिमानाः) उत्पादयन्तः (जहुः) जहति (विश्वानि) सर्वाणि (भोजना) भोजनानि पालनानि भोक्तव्यानि वा (सुदासे) सुष्ठु दातरि ॥१५॥
भावार्थः
अत्रोपमालुप्तोपमालङ्कारः। येषां समुद्रतरङ्गा इव उत्साहिता बलिष्ठाः सेनाः स्युस्ते शत्रुसेनास्सद्योऽधो निपात्य जेतुं शक्नुवन्ति ॥१५॥
हिन्दी (3)
विषय
किस के साथ कौन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (एते) ये (इन्द्रेण) परमैश्वर्ययुक्त राजा के साथ (तृत्सवः) शत्रुओं को मारनेवाले (वेविषाणाः) शत्रुओं के बलों को व्याप्त होते हुए (आपः) जलों के (न) समान (सृष्टाः) शत्रुओं पर नियम से रक्खे और (विश्वानि) समस्त (भोजना) भोजनों को (मिमानाः) उत्पन्न करते हुए जो (दुर्मित्रासः) दुष्ट मित्रोंवाले हों उनकी जो सेना हैं वे (नीचीः) नीचे जाती और (अधवन्त) कम्पती हैं उन पर जो शस्त्र अस्त्रों को (जहुः) छोड़ते हैं और जो परमैश्वर्ययुक्त राजा (सुदासे) श्रेष्ठ देनेवाले के निमित्त (प्रकलवित्) अच्छे प्रकार संख्या का जाननेवाला है, वे सब विजयभागी होते हैं ॥१५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जिनकी समुद्र की तरङ्गों के समान, उत्साहयुक्त, बलिष्ठ सेना हों, वे शत्रुओं की सेनाओं को नीचे गिरा शीघ्र उन्हें जीत सकते हैं ॥१५॥
विषय
राजा के वीर जन ।
भावार्थ
( एते ) ये ( तृत्सवः ) हिंसाकारी, सैन्य में भर्ती हुए सिपाही लोग ( वेविषाणा ) शत्रु सैन्य में फैलते हुए ( सृष्टाः आपः न ) वर्षा से उत्पन्न जलों के समान ( नीचीः अधवन्त ) नीचे की भूमियों में वेग से जाते हैं, वा (नीची: ) नीच गुण की दुष्ट सेनाओं को ( अधुवन्त ) कंपाते, भयभीत करते हैं। और ( दुर्मित्रासः ) दुष्ट मित्र, (मिमानाः ) हिंसा करते हुए भी ( प्रकलवित ) उक्त संख्या जानने चाले ( सुदासे ) या उत्तम ज्ञानवान्, उत्तम दानशील राजा के हितार्थ (भोजना जहुः) अपने भोजनवत् समस्त भोग्य सुखों को भी त्यागते हैं । इति षड्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
तृत्सवः दुर्मित्रासः
पदार्थ
[१] (एते) = ये (तृत्सवः) = काम-क्रोध आदि को कुचलनेवाले व्यक्ति (इन्द्रेण) = उस शत्रुविद्रावक प्रभु से (वेविषाणा:) = अपने को व्याप्त करते हुए, अर्थात् सदा प्रभु का स्मरण करते हुए, (सृष्टाः आपः न) = उत्पन्न हुए हुए जलों की तरह (नीची:) = निम्न मार्ग से - विनम्रता के मार्ग से (अधवन्त) = तीव्र गतिवाले होते हैं। जैसे जल निम्न मार्ग से गति करते हुए आगे और आगे बढ़ते हैं और अन्ततः समुद्र में आ मिलते हैं, इसी प्रकार ये (तृत्सु) = नम्रता से आगे बढ़ते हुए उस आनन्द के समुद्र प्रभु में जा मिलते हैं। [२] इसके विपरीत (दुर्मित्रासः) = दुष्ट भावों से मित्रतावाले, अर्थात् राक्षसीभावों में सदा निवास करनेवाले, (प्रकलवित्) = [Lgnorant, प्रकला - Aminute portion, अजानन्तः सा०] अल्पज्ञ-मूर्ख, (मिमाना:) = हिंसा करते हुए अपनी मौज के लिये औरों के हिंसन में प्रवृत्त हुए-हुए पुरुष, (सुदासे) = सम्यक् काम-क्रोध आदि का उपक्षय करनेवाले पुरुष में होनेवाले (विश्वानि) = सब (भोजना) = पालनात्मक कर्मों को [भुज-पालने] (जहुः) = परित्यक्त करते हैं। ये पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त न होकर सदा हिंसात्मक कर्मों में ही प्रवृत्त रहते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का सतत स्मरण करते हुए हम काम-क्रोध आदि शत्रुओं को कुचलनेवाले बने और नम्रतापूर्वक कर्तव्य मार्ग का आक्रमण करते हुए प्रभु से मिलने के लिये यत्नशील हों। दुष्टभावों को अपनाकर, मूर्खता से हिंसात्मक कर्मों में ही प्रवृत्त न रह जायें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्यांची सेना समुद्राच्या तरंगाप्रमाणे उत्साहयुक्त व बलवान असते ते शत्रूंच्या सेनेचा पाडाव करून तात्काळ त्यांना जिंकू शकतात. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
There furious warriors overwhelming the enemy like turbulent waters rushing down hill are the creation of Indra, and they, over-coming and cutting to size the enemies and strategists camouflaged as friends, are prepared to renounce all comforts for the sake of their devotion to the generous master and ruler.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal