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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    दु॒रा॒ध्यो॒३॒॑ अदि॑तिं स्रे॒वय॑न्तोऽचे॒तसो॒ वि ज॑गृभ्रे॒ परु॑ष्णीम्। म॒ह्नावि॑व्यक्पृथि॒वीं पत्य॑मानः प॒शुष्क॒विर॑शय॒च्चाय॑मानः ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दु॒रो॒ध्यः॑ । अदि॑तिम् । स्रे॒वय॑न्तः । अ॒चे॒तसः॑ । वि । ज॒गृ॒भ्रे॒ । परू॑ष्णीम् । म॒ह्ना । अ॒वि॒व्य॒क् । पृ॒थि॒वीम् । पत्य॑मानः । प॒शुः । क॒विः । अ॒श॒य॒त् । चाय॑मानः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुराध्यो३ अदितिं स्रेवयन्तोऽचेतसो वि जगृभ्रे परुष्णीम्। मह्नाविव्यक्पृथिवीं पत्यमानः पशुष्कविरशयच्चायमानः ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुःऽआध्यः। अदितिम्। स्रेवयन्तः। अचेतसः। वि। जगृभ्रे। परुष्णीम्। मह्ना। अविव्यक्। पृथिवीम्। पत्यमानः। पशुः। कविः। अशयत्। चायमानः ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    केऽत्र भाग्यहीना सन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    यथा मह्ना पत्यमानश्चायमानः कविः पशुरशयत् परुष्णीं पृथिवीमविव्यक् तथा येऽचेतसो दुराध्योऽदितिं स्रेवयन्ती विजगृभ्रे ते वर्त्तन्त इति वेद्यम् ॥८॥

    पदार्थः

    (दुराध्यः) दुष्टाचारा दुष्टधियः (अदितिम्) जनित्वं कामम् (स्रेवयन्तः) (अचेतसः) निर्बुद्धयः (वि) (जगृभ्रे) गृह्णन्ति (परुष्णीम्) पालिकाम् (मह्ना) महत्वेन (अविव्यक्) व्याजीकरोति (पृथिवीम्) भूमिम् (पत्यमानः) पतिरिवाचरन् (पशुः) गवादिः (कविः) क्रान्तप्रज्ञः (अशयत्) शेते (चायमानः) वर्धमानः ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! त एवाऽत्र पशुवत्पामराः सन्ति ये स्त्र्यासक्ता भवन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कौन इस लोग में भाग्यहीन होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जैसे (मह्ना) बड़प्पन से (पत्यमानः) पति के समान आचरण करता (चायमानः) वृद्धि को प्राप्त होता हुआ (कविः) प्रत्येक काम में आक्रमण करनेवाली बुद्धि जिसकी वह (पशुः) गो आदि पशु (अशयत्) सोता है (परुष्णीम्) पालनेवाली (पृथिवीम्) भूमि को (अविव्यक्) विविध प्रकार से आक्रमण करता है, वैसे जो (अचेतसः) निर्बुद्धि (दुराध्यः) दुष्टबुद्धिपुरुष (अदितिम्) उत्पत्ति काम को (स्रेवयन्तः) सेवते हुए (वि, जगृभ्रे) विशेषता से लेते हैं, वे वर्त्तमान हैं, ऐसा जानो ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! वे ही इस संसार में पशु के तुल्य पामरजन हैं, जो स्त्री में आसक्त हैं ॥८॥

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    विषय

    दुर्बुद्धि और कुमार्गी के लक्षण ।

    भावार्थ

    (दुराध्यः ) दुष्ट बुद्धि वाले, दुष्ट आचार वाले ( अचेतसः) विना चित्त के और अज्ञानी ( अदितिम्) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष वा उसकी अखण्ड, ( परुष्णीम् ) पालन करने वाली अति दीप्तियुक्त तेजस्विनी नीति को ( स्रेवयन्तः ) उल्लंघन करते हुए ( वि जगृभ्रे ) विग्रह विरोध किया करते हैं। (मह्ना) अपने महान् सामर्थ्य से ( चायमानः ) ऐश्वर्य की वृद्धि करता हुआ ( कविः ) क्रान्तदर्शी विद्वान् पुरुष ( पृथिवीं पत्यमानः ) पृथिवी का स्वामी होता हुआ ( अविव्यक् ) पृथ्वी पर अपना अधिकार प्राप्त करता है । और ( पशुः ) पशु के समान मूर्ख राजा ( चायमानः ) वृद्धियुक्त होकर भी ( पत्यमानः ) गिराया जाकर ( पृथिवीम् अशयत् ) भूमि पर पशु के समान सोता है, मारा जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    अचेतस् द्वारा परुष्णी के कूल का भेदन

    पदार्थ

    [१] (दुराध्य:) = [दुष्टाभिसन्धयः] दुष्ट अभिसन्धिवाले लोग, जो व्यक्ति शुभ इच्छाओं को लेकर कार्यों में नहीं प्रवृत्त होते, (अदितिं स्त्रेवयन्तः) = [सेव् To shakedry] अदीना देवमाता को शुष्क करते हुए, अर्थात् दिव्यगुणों को समाप्त करते हुए, ये (अचेतसः) = मूर्ख लोग परुष्णीम् [पृ नी] पालक व पूरक नीतिरूप नदी को (विजगृभ्रे) = भिन्न कूल करते हैं। ये पालक व पूरक नीति मार्ग का उल्लंघन करते हैं। समझदारी यही है कि हम [क] शुभ भावनाओं से सब कार्यों में प्रवृत्त हों [ख] दिव्यगुणों को पनपाने का प्रयत्न करें, [ग] नीति मार्ग का उल्लंघन न करें। [२] इसके विपरीत (पत्यमानः) = सतत नीति मार्ग पर चलता हुआ पुरुष (मह्ना) = अपनी महिमा से (पृथिवीम्) = सम्पूर्ण पृथिवी को (अविव्यक्) = [व्याप्नोत्] व्याप्त करता है, अर्थात् बड़े यशस्वी जीवनवाला होता है। यह (पशुः) = [पश्यति] द्रष्टा बनकर, (कवि:) = क्रान्तप्रज्ञ [Piercing sight वाला] होता हुआ (चायमानः) = सदा प्रभु का पूजन करता हुआ (अशयत्) = इस शरीररूप नगरी में निवास करता है [परिशेते] । 'चीज को उसके ठीक रूप में देखना, सूक्ष्म बुद्धि से विचार करना व प्रभु का उपासन' ये सब बातें जीवन में प्रगति के लिये व संसार में न आसक्त हो जाने के लिये आवश्यक हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम शुभ भावनाओंवाले बनें। दिव्यगुणों का वर्धन करें। नीति मार्ग पर चलें। हमारा जीवन यशस्वी हो। द्रष्टा चिन्तनशील व उपासक बनकर इस शरीर नगरी में निवास करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे स्त्रीमध्ये आसक्त असतात तेच या जगात पशूप्रमाणे पामर असतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thoughtless men of evil disposition try to fail his policy of universal and inviolable values and grab lands of fertility. But Indra, a man of vision, all round perceptive, saving the land and policy frustrates their designs and maintains national integrity and rests in peace and fearlessness.

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