ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 22
द्वे नप्तु॑र्दे॒वव॑तः श॒ते गोर्द्वा रथा॑ व॒धूम॑न्ता सु॒दासः॑। अर्ह॑न्नग्ने पैजव॒नस्य॒ दानं॒ होते॑व॒ सद्म॒ पर्ये॑मि॒ रेभ॑न् ॥२२॥
स्वर सहित पद पाठद्वे इति॑ । नप्तुः॑ । दे॒वऽव॑तः । श॒ते इति॑ । गोः । द्वा । रथा॑ । व॒धूऽम॑न्ता । सु॒ऽदासः॑ । अर्ह॑न् । अ॒ग्ने॒ । पै॒ज॒ऽव॒नस्य॑ । दान॑म् । होता॑ऽइव । सद्म॑ । परि॑ । ए॒भि॒ । रेभ॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वे नप्तुर्देववतः शते गोर्द्वा रथा वधूमन्ता सुदासः। अर्हन्नग्ने पैजवनस्य दानं होतेव सद्म पर्येमि रेभन् ॥२२॥
स्वर रहित पद पाठद्वे इति। नप्तुः। देवऽवतः। शते इति। गोः। द्वा। रथा। वधूऽमन्ता। सुऽदासः। अर्हन्। अग्ने। पैजऽवनस्य। दानम्। होताऽइव। सद्म। परि। एमि। रेभन् ॥२२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 22
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्स राजा किंवत्किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यथार्हन् सुदासोऽहं दानं होतेव सद्म पैजवनस्य नप्तुः सद्म पर्येमि देववतो गोर्द्वे शते वधूमन्ता द्वा रथा पर्येमि यथा विद्वांसो रेभँस्तान् पर्य्येमि तथा त्वं भव ॥२२॥
पदार्थः
(द्वे) (नप्तुः) पौत्रस्य (देववतः) प्रशस्तगुणविद्वद्युक्तस्य (शते) (गोः) धेनोर्भूमेर्वा (द्वा) द्वौ (रथा) जलस्थलान्तरिक्षेषु गमयितारौ (वधूमन्ता) प्रशस्ते वध्वौ विद्येते ययोस्तौ (सुदासः) उत्तमदानः (अर्हन्) सत्कुर्वन् (अग्ने) विद्वन् (पैजवनस्य) वेगयुक्तस्य (दानम्) यद्दीयते तत् (होतेव) दातेव (सद्म) स्थानम् (परि) सर्वतः (एमि) प्राप्नोमि (रेभन्) स्तुवन्ति ॥२२॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्या ! यथा दातार उत्तमानि दानानि ददति पौत्रपर्यन्तं धनधान्यपश्वादीन् समर्धयन्ति तथा सर्वैर्वर्तितव्यम् ॥२२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा किसके तुल्य क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! जैसे (अर्हन्) सत्कार करता हुआ (सुदासः) उत्तम दानशील मैं (दानम्) दान (होतेव) देनेवाले के समान (सद्म) घर को वा (पैजनवस्य) वेगवान् (नप्तुः) पौत्र के स्थान को (पर्येमि) सब ओर से जाता हूँ और (देववतः) प्रशंसित गुणवाले विद्वानों से युक्त की (गोः) धेनु वा भूमिसम्बन्धी (द्वे) दो (शते) सौ (वधूमन्ता) प्रशंसायुक्त वधूवाले (द्वा) दो (रथा) जल-स्थल में जानेवाले रथों को सब ओर से प्राप्त होता हूँ वा जैसे विद्वान् जन (रेभन्) स्तुति करते हैं, उनको सब ओर से जाता हूँ, वैसे आप हूजिये ॥२२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जैसे देनेवाले उत्तम दान देते और पौत्रपर्य्यन्त धनधान्य और पशु आदि की समृद्धि करते हैं, वैसे सब को वर्त्तना चाहिये ॥२२॥
विषय
उत्तम राजा के दो अधिकारी ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्रणी, अग्निवत् तेजस्विन् ! विद्वन् ! ( होता इव सद्म) दानशील पुरुष जिस प्रकार सभाभवन को प्राप्त होता है उसी प्रकार मैं भी ( अर्हन् ) सत्कार को प्राप्त होकर ( रेभन् ) उपदेश, करता हुआ ( पैजवनस्य ) स्पर्धा करने योग्य वेग, गति, आचार व्यवहार वाले अनुकरणीय चरित्रवान् पुरुष के पुत्र ( सु-दासः ) उत्तम दानशील पुरुष के ( दानं ) दिये सात्विक दान (सद्म पर्येमि) अपने प्रतिष्ठित गृह के समान ही प्राप्त करूं। इसी प्रकार (नप्तुः) प्रजाओं का उत्तम प्रबन्ध करने वाले (देव-वतः) विद्वानों, वीरों और व्यवहारवान् पुरुषों के ( सु-दासः ) उत्तम दानशीलराजा के ( द्वे शते ) दो सौ ( गोः ) भूमि के ( वधूमन्ता ) 'वधू' अर्थात् राज्य के भार को वहन करने वाली विशेष शक्ति से युक्त, ( द्वा रथा ) दो रथ, रथवान् नायक जनों को भी मैं प्रजाजन प्राप्त करूं । अध्यात्म में - सर्वातिशायी, सर्वप्रद प्रभु पैजवन सुदास है। सर्व प्रबन्धक एवं बन्धु होने से नप्ता है। प्रति वर्ष दो अयन, जीवन में २०० हैं। यह शरीर और लिङ्ग शरीर दो ( चित्) वधू युक्त रथ हैं । प्रभु के सब दिये दानों को मैं स्तुतिपूर्वक ग्रहण करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
'नप्तः देववान् सुदास्'
पदार्थ
[१] (नप्तुः) = धर्ममार्ग से न पतित होनेवाले, (देववतः) = दिव्यगुणोंवाले (सुदासः) = उत्तम दानशील व काम-क्रोध आदि का अच्छी प्रकार उपक्षय करनेवाले [दाश् दाने, दसु उपक्षये] इस उपासक के (गोः) = इन्द्रिय समूह के (द्वेशते) = प्रतिवर्ष उत्तरायण व काम-क्रोध आदि का अच्छी प्रकार उपक्षय करनेवाले [दाश् दाने, दसु उपक्षये] इस उपासक के (गोः) = इन्द्रिय समूह के द्वेशते प्रतिवर्ष उत्तरायण व दक्षिणायन के रूप में दो सौ अयनों होते हैं तथा (द्वा रथा) = सूक्ष्म तथा स्थूल शरीररूप दोनों रथ (वधूमन्ता) = प्रशस्त बुद्धि रूप वधूवाले होते हैं। इस सुदास् की इन्द्रियाँ दो सौ अयनों तक बड़ा ठीक कार्य करनेवाली होती हैं और इसके स्थूल व सूक्ष्म दोनों शरीर भी पूर्ण स्वस्थ होते हुए प्रशस्त बुद्धि सम्पन्न होते हैं। [२] (पैजवनस्य) = इस कर्तव्य कर्मों में वेगवान् पुरुष के (दानम्) = शत्रु विनाश [दाप् लवने] रूप कार्य को (अर्हन्) = पूजता हुआ, उस कार्य को आदर की दृष्टि से देखता हुआ हे अग्ने प्रभो ! मैं भी (होता इव) = एक यज्ञशील पुरुष की तरह (रेभन्) = स्तुति करता हुआ (सद्म) = इस गृह में पर्येभिकर्तव्य कर्मों में विचरण करता हूँ। इस प्रकार ही तो मैं भी काम-क्रोध आदि का विनाश कर पाऊँगा।
भावार्थ
भावार्थ- हम धर्म मार्ग से न पतित होनेवाले, दिव्यगुणों को अपनानेवाले बुराइयों का उपक्षय करनेवाले बनें। तभी हमारी इन्द्रियाँ दो सौ अयनों [सौ वर्ष] तक ठीक कार्य करेंगी व स्थूल व सूक्ष्म शरीर प्रशस्त बुद्धि सम्पन्न होंगे। हम यज्ञशील स्तोता व कर्तव्यरत बनें । -
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे दाते उत्तम दान देतात व पौत्रापर्यंत धन, धान्य, पशू इत्यादींची समृद्धी करतात तसे सर्वांनी वागावे. ॥ २२ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Two hundred cows and two chariots drawn by double motive powers are the gifts of the generous yajamana, grand child of a dynamic, pious and progressive God-fearing yajaka. O Agni, lord and leader of the light and fire of the corporate life of humanity, happily acknowledging, singing and celebrating the gift of the man of peace and progress, I go round the house of yajna with reverence like the high priest and the yajaka myself.
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