ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 11
एकं॑ च॒ यो विं॑श॒तिं च॑ श्रव॒स्या वै॑क॒र्णयो॒र्जना॒न्राजा॒ न्यस्तः॑। द॒स्मो न सद्म॒न्नि शि॑शाति ब॒र्हिः शूरः॒ सर्ग॑मकृणो॒दिन्द्र॑ एषाम् ॥११॥
स्वर सहित पद पाठएक॑म् । च॒ । यः । विं॒श॒तिम् । च॒ । श्र॒व॒स्या । वै॒क॒र्णयोः॑ । जना॑न् । राजा॑ । नि । अस्तः॑ । द॒स्मः । न । सद्म॑न् । नि । शि॒शा॒ति॒ । ब॒र्हिः । शूरः॑ । सर्ग॑म् । अ॒कृ॒णो॒त् । इन्द्रः॑ । ए॒षा॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एकं च यो विंशतिं च श्रवस्या वैकर्णयोर्जनान्राजा न्यस्तः। दस्मो न सद्मन्नि शिशाति बर्हिः शूरः सर्गमकृणोदिन्द्र एषाम् ॥११॥
स्वर रहित पद पाठएकम्। च। यः। विंशतिम्। च। श्रवस्या। वैकर्णयोः। जनान्। राजा। नि। अस्तः। दस्मः। न। सद्मन्। नि। शिशाति। बर्हिः। शूरः। सर्गम्। अकृणोत्। इन्द्रः। एषाम् ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 11
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो दस्मो न वैकर्णयोर्न्यस्तो राजा जनान् सद्मन् नि शिशाति विंशतिं चैकं च श्रवस्याकृणोत् स एषामिन्द्रोब र्हिः सर्गमिव शूरश्शत्रून् विजयते ॥११॥
पदार्थः
(एकम्) (च) (यः) (विंशतिम्) एतत्संख्याताम् (च) (श्रवस्या) श्रवस्यन्ने साधूनि (वैकर्णयोः) विविधेषु कर्णेषु श्रोत्रेषु भवयोर्व्यवहारयोः (जनान्) मनुष्यान् (राजा) राजमानः (नि) (अस्तः) योऽस्यति सः (दस्मः) दुःखोपक्षयिता (न) इव (सद्मन्) सीदन्ति यस्मिन् तस्मिन् गृहे (नि) नितराम् (शिशाति) तीक्ष्णीकरोति (बर्हिः) प्रवृद्धम् (शूरः) निर्भयः (सर्गम्) उदकम्। सर्ग इत्युदकनाम। (निघं०१.१२) (अकृणोत्) करोति (इन्द्रः) सूर्यः (एषाम्) वीराणां मनुष्याणां मध्ये ॥११॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यो राजा मनुष्यान् पुत्रवत्पालयत्यहिंसक इव सर्वानानन्दयते सूर्यवत् न्यायविद्याबलानि प्रकाश्य शत्रून् विजयते स एव सर्वं सुखमाप्नोति ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (दस्मः) दुःख के विनाश करनेवाले के (न) समान (वैकर्णयोः) विविध प्रकार के कानों में उत्पन्न हुए व्यवहारों का (नि, अस्तः) निरन्तर प्रक्षेपण करने अर्थात् औरों के कानों में डालनेवाला (राजा) विराजमान (जनान्) मनुष्यों को (सद्मन्) जिसमें बैठते हैं उस घर में (नि, शिशाति) निरन्तर तीक्ष्ण करता है और (विंशतिम्, च, एकम्, च) बीस और एक भी अर्थात् इक्कीस (श्रवस्या) अन्न में उत्तम गुण देनेवालों को (अकृणोत्) सिद्ध करता है वह (एषाम्) इन वीर मनुष्यों के बीच (इन्द्रः) सूर्य (बर्हिः) अच्छे प्रकार बड़े हुए (सर्गम्) जल को जैसे वैसे (शूरः) निर्भय शत्रुओं को जीतता है ॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो राजा मनुष्यों के पुत्र के समान पालता, अहिंसक के समान सब को आनन्दित कराता और सूर्य के समान न्यायविद्या और बलों को प्रकाशित कर शत्रुओं को जीतता है, वही सब सुखों को प्राप्त होता है ॥११॥
विषय
राज समिति के २१ सदस्य ।
भावार्थ
( न्यस्तः ) निश्चित रूप से स्थापित ( यः ) जो ( राजा ) तेजस्वी राजा, ( वैकर्णयोः ) विविध कानों वाले दोनों पक्षों के बीच ( एकं च विंशतिं च ) एक और बीस अर्थात् इक्कीस, ( जनान् ) विद्वान् मनुष्यों को ( श्रवस्या ) श्रवण योग्य राज्य-कार्यों को सुनने के लिये अपना सभासद् बनाता है ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् शत्रु ( एषाम् ) इन इक्कीसों का ( सर्गम् ) एक सर्ग अर्थात् समिति या संघ ( अकृणोत् ) बना लेता है । वह ( सद्मन् ) अपने भवन में विराजता हुआ भी ( दस्मः ) शत्रु नाश करने में समर्थ ( शूरः ) शुरवीर पुरुष (बर्हिः ) कुश तृण के समान बढ़ते शत्रु को ( नि शिशाति ) नाश करता है ।
टिप्पणी
राजा २० सभासदों की अमात्यसभा बनावे आप उनमें इक्कीसवां हो । उनके दो पक्ष (वैकर्ण) हों उन इक्कीसों का एक 'सर्ग' ( body ) या एक रचना ( Constitution ) हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
वैकर्णयोः राजा
पदार्थ
[१] (यः) = जो (वैकर्णयोः) = [वि+कृ विक्षेपे] इधर-उधर विक्षिप्त होनेवाली दोनों इन्द्रियों का राजा शासक बनता है, मन को तथा बाह्य इन्द्रियों को अपने वश में करता है, यह (जनान् न्यस्त) = अन्य जनों का पराभव करनेवाला होता है, अर्थात् अन्य लोगों से बहुत आगे बढ़ जाता है। यह (एकं च विंशतिञ्च) = एक और बीस, अर्थात् २१ शक्तियों को (श्रवस्या) = ज्ञान व यश की प्राप्ति की कामना से (निशिशाति) = खूब तीक्ष्ण करता है। [ये त्रिषप्ता: परियन्ति विश्वा रूपाणि विभ्रत:] शरीरस्थ सब शक्तियों का विकास करता हुआ ज्ञान- सम्पन्न व यशस्वी बनता है। [२] यह (दस्मः न) = सबके दुःखों के दूर करनेवाले के समान होता हुआ (सद्मन्) = इस शरीरगृह में (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय को भी (निशिशाति) = बड़ा तीव्र बनाता है। इसके हृदय में सर्वहित की भावना प्रबल हो उठती है। अब (एषाम्) = इन लोगों के (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (सर्गम्) = दृढ़ निश्चय को (अकृणोत्) = करनेवाले होते हैं। प्रभु ही (शूरः) = इनके शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले बनते हैं। प्रभु के साहाय्य से ये अपने मार्ग पर आगे बढ़ते हैं मार्ग में विघ्नरूप से आये शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम इन्द्रियों के शासक बनकर शरीरस्थ २१ शक्तियों को ज्ञान व यश की प्राप्ति के हेतु से तीव्र करनेवाले हों। हृदय में सर्वहित की भावना को तीव्र करें। प्रभु हमारे दृढ़ निश्चय में सहायक होंगे और हमारे शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले होंगे।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जो राजा माणसांचे पुत्राप्रमाणे पालन करतो, अहिंसकाप्रमाणे सर्वांना आनंदित करतो व सूर्याप्रमाणे न्याय, विद्या व बल प्रकट करून शत्रूंना जिंकतो तोच सर्व सुख प्राप्त करतो. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The ruler, personally resigned and socially committed as a trustee, commanding power and brilliance as Indra, dedicated to the elimination of want and suffering, creates and ministers a senate of twenty and one reputed people over a variety of views and opinions and thus, brave and brilliant as he is, organises the nation into a dynamic social order like a high priest organising and energising the vedi in the house of yajna.
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