ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 13
वि स॒द्यो विश्वा॑ दृंहि॒तान्ये॑षा॒मिन्द्रः॒ पुरः॒ सह॑सा स॒प्त द॑र्दः। व्यान॑वस्य॒ तृत्स॑वे॒ गयं॑ भा॒ग्जेष्म॑ पू॒रुं वि॒दथे॑ मृ॒ध्रवा॑चम् ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठवि । स॒द्यः । विश्वा॑ । दृं॒हि॒तानि॑ । ए॒षा॒म् । इन्द्रः॑ । पुरः॑ । सह॑सा । स॒प्त । द॒र्दः॒ । वि । आन॑वस्य । तृत्स॑वे । गय॑म् । भा॒क् । जेष्म॑ । पू॒रुम् । वि॒दथे॑ । मृ॒ध्रऽवा॑चम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि सद्यो विश्वा दृंहितान्येषामिन्द्रः पुरः सहसा सप्त दर्दः। व्यानवस्य तृत्सवे गयं भाग्जेष्म पूरुं विदथे मृध्रवाचम् ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठवि। सद्यः। विश्वा। दृंहितानि। एषाम्। इन्द्रः। पुरः। सहसा। सप्त। दर्दः। वि। आनवस्य। तृत्सवे। गयम्। भाक्। जेष्म। पूरुम्। विदथे। मृध्रऽवाचम् ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 13
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते राजादयः कीदृशं बलं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
यथेन्द्रो राजा सहसैषां सप्त पुरो वि दर्द आनवस्य गयं वि भाक् पूरुं विदथे मृध्रवाचं च तृत्सवे वर्तमानं वयं जेष्म यतोऽस्माकं सद्यो विश्वा दृंहितानि स्युः ॥१३॥
पदार्थः
(वि) विशेषेण (सद्यः) शीघ्रम् (विश्वा) सर्वाणि (दृंहितानि) वृद्धानि सैन्यानि (एषाम्) शत्रूणाम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (पुरः) शत्रूणां पुराणि (सहसा) बलेन (सप्त) एतत्संख्याकान् (दर्दः) विदृणाति (वि) (आनवस्य) समन्तान्नवीनस्य (तृत्सवे) हिंसकाय (गयम्) प्रजाम् गृहं वा (भाक्) भजति (जेष्म) जयेम (पूरुम्) पूरणप्रज्ञं [=पूर्णप्रज्ञं] मनुष्यम् (विदथे) सङ्ग्रामे (मृध्रवाचम्) मृध्रा हिंसिका वाक् यस्य तम् ॥१३॥
भावार्थः
ये धार्मिकास्सप्रधाना वा राजकार्यशूरवीराः स्वेभ्यः सप्तगुणानधिकानपि दुष्टान् शत्रूञ्जेतुं शक्नुवन्ति ते प्रजाः पालयितुमर्हन्ति ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे राजा आदि कैसा बल करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जैसे (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् राजा (सहसा) बल से (एषाम्) इन शत्रुओं के (सप्त) सातों (पुरः) पुरों को (वि, दर्दः) विशेषता से छिन्न-भिन्न करता वा (आनवस्य) सब ओर से नवीन के (गयम्) प्रजा वा घर को (वि, भाक्) विशेषता से सेवता है तथा (पूरुम्) पूरण बुद्धिवाले मनुष्य को और (विदथे) संग्राम में (मृध्रवाचम्) हिंसा करनेवाली जिसकी वाणी और (तृत्सवे) दूसरे हिंसक के लिये सम्मुख विद्यमान है उसको हम लोग (जेष्म) जीतें जिससे हमारी (सद्यः, विश्वा, दृंहितानि) समस्त सेना के जन शीघ्र वृद्धि उन्नति को प्राप्त हों ॥१३॥
भावार्थ
जो धार्मिक अपने प्रधानों से सहित वा राज्यकार्य्यों में शूरवीर पुरुष अपने से सतगुने अधिक भी दुष्ट शत्रुओं को जीत सकते हैं, वे प्रजा पालने को योग्य होते हैं ॥१३॥
विषय
शत्रु साधन ।
भावार्थ
जब भी ( सद्यः ) शीघ्र ही ( विश्वा) सब (दृंहितानि ) अपने सैन्य दृढ़ हों। (इन्द्रः ) आत्मा जिस प्रकार ( सहसा ) अपने प्राण बल से ( एषां ) इन जीव शरीरों के ( सप्त पुरः वि दर्दः ) सात इन्द्रिय, ज्ञानपूरक छिद्रों को भेदता है उसी प्रकार ऐश्वर्यवान् राजा भी ( एषां ) इन शत्रु जनों को ( सप्त पुरः ) सातों प्रकार के दुर्गों को ( वि दर्दः ) विविध प्रकार से भेदे, नष्ट करे । आत्मा जिस प्रकार 'अनु' अर्थात् प्राणी जीव के योग्य इस देह के ( गयम् ) प्राण का ( वि भाक् ) देह भर में विभक्त करता है उसी प्रकार राजा ( आनवस्य ) अनु अर्थात् मनुष्यों के रहने योग्य राष्ट्र के ( गयं ) प्रजाजन को ( वि भाक् ) विभक्त करे और (तृत्सवे ) हिंसक पुरुष को राष्ट्र से हटाने के लिये हम लोग ( मृध्र-वाचः ) हिंसक, दुःखदायी वाणी बोलने वाले ( पूरुं ) मनुष्य समूह को ( जेष्म ) जय करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
सप्त पुरियों का विदारण
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = वह शत्रुविद्रावक प्रभु (एषाम्) = गतमन्त्र में वर्णित 'श्रुत, कवष, अप्सु वृद्ध व द्रुह्यु' के जीवन में असुरों के बने हुए (विश्वा) = सब (दृंहितानि) = अतिशयेन दृढ़ (सप्त पुरः) = सात मर्यादाओं के भंगरूप सात नगरों को (सद्यः) = शीघ्र ही (सहसा) = शत्रुनाशक बल के द्वारा (विदर्द:) = विदीर्ण कर देता है। 'सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षु:०' [२] (तृत्सवे) = शत्रुओं को कुचलनेवाले पुरुष के लिये (आनवस्य) = ( अन प्राणने) प्राणशक्तिसम्पन्न पुरुष के (गयम्) = शरीरगृह को (विभाक्) = विशेषरूप से प्राप्त कराता है। अर्थात् वासना को कुचलनेवाला पुरुष खूब प्राणशक्तिसम्पन्न शरीरवाला होता है। हम (विदथे) = ज्ञानयज्ञ में (मृध्रवाचम्) = हिंसक वाणीवाले (पूरुम्) = मनुष्य को (जेष्म) = जीतनेवाले बनें । अर्थात् ज्ञानयज्ञ में प्रवृत्त हुए हुए हम कभी भी हिंसक वाणी का प्रयोग न करें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सात मर्यादाओं के भंग रूप सात दोषों को दूर करते हैं। वासनाओं को कुचलनेवाले के लिये प्राणशक्तिसम्पन्न शरीरगृह को प्राप्त कराते हैं। हम ज्ञान के प्रचार में मधुर वाणी का ही प्रयोग करें।
मराठी (1)
भावार्थ
जे धार्मिक आपल्या प्रधानासह किंवा राज्यकार्यात शूरवीर असलेल्या पुरुषांसह आपल्यापेक्षा सप्तगुणी दुष्ट शत्रूंना जिंकू शकतात ते प्रजापालन करण्यायोग्य असतात. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the ruler with his enlightened forces always and at the earliest rule out and destroy the sevenfold citadels of these outmoded enemies, and let him serve and support the home and institutions of values anew for the rising people of free thought and action. Let us always realise and win the values of the eternal and liquid flow of the holy voice in our yajnic business of systemic life.
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