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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 25
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मं न॑रो मरुतः सश्च॒तानु॒ दिवो॑दासं॒ न पि॒तरं॑ सु॒दासः॑। अ॒वि॒ष्टना॑ पैजव॒नस्य॒ केतं॑ दू॒णाशं॑ क्ष॒त्रम॒जरं॑ दुवो॒यु ॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । न॒रः॒ । म॒रु॒तः॒ । स॒श्च॒त॒ । अनु॑ । दिवः॑ऽदासम् । न । पि॒तर॑म् । सु॒ऽदासः॑ । अ॒वि॒ष्टन॑ । पै॒ज॒ऽव॒नस्य॑ । केत॑म् । दुः॒ऽनाश॑म् । क्ष॒त्रम् । अ॒जर॑म् । दु॒वः॒ऽयु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं नरो मरुतः सश्चतानु दिवोदासं न पितरं सुदासः। अविष्टना पैजवनस्य केतं दूणाशं क्षत्रमजरं दुवोयु ॥२५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। नरः। मरुतः। सश्चत। अनु। दिवःऽदासम्। न। पितरम्। सुऽदासः। अविष्टन। पैजऽवनस्य। केतम्। दुःऽनाशम्। क्षत्रम्। अजरम्। दुवःऽयु ॥२५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 25
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कीदृशं राजानं समाश्रयेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे नरो मरुतो यः सुदासो भवेत्तमिमं दिवोदासं पितरं न यूयं सश्चत पैजवनस्य दूणाशं केतमजरं दुवोयु क्षत्रं चान्वविष्टन ॥२५॥

    पदार्थः

    (इमम्) (नरः) नायकाः (मरुतः) मनुष्याः (सश्चत) समवयन्तु (अनु) (दिवोदासम्) विद्याप्रकाशदातारम् (न) इव (पितरम्) पालकम् (सुदासः) उत्तमविद्यादानः (अविष्टन) व्याप्नुत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (पैजवनस्य) क्षमाशीलाज्जातस्य पुत्रस्य (केतम्) प्रज्ञाम् (दूणाशम्) दुःखेन नाशयितुं योग्यं दुर्लभविनाशं वा (क्षत्रम्) राज्यं धनं वा (अजरम्) नाशरहितम् (दुवोयु) परिचरणाय कमनीयम् ॥२५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यदि मनुष्या विद्यादिशुभगुणदातारं पितरमिव पालकं राजानमाश्रयेयुस्तर्हि पूर्णां प्रज्ञामविनाशि सेवनीयमैश्वर्यं राज्यं च स्थिरं कर्तुं शक्नुयुरिति ॥२५॥ अत्रेन्द्रराजप्रजामित्रधार्मिकाऽमात्यशत्रुनिवारणधार्मिकसत्करणार्थप्रतिपादनादस्य सूक्तस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टादशं सूक्तमष्टाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसे राजा को अच्छे प्रकार आश्रय करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (नरः) नायक (मरुतः) मनुष्यो ! जो (सुदासः) उत्तम दान देनेवाला हो (इमम्) उस (दिवोदासम्) विद्याप्रकाश देनेवाले को (पितरम्) पालनेवाले पिता के (न) समान तुम लोग (सश्चत) मिलो, सम्बन्ध करो और (पैजवनस्य) क्षमाशील है जिसका उससे उत्पन्न हुए पुत्र के (दूणाशम्) दुःख से नाश करने योग्य पदार्थ वा दुर्लभ विनाश (केतम्) उत्तम बुद्धि और (अजरम्) विनाशरहित (दुवोयु) सेवन करने के लिये मनोहर (क्षत्रम्) राज्य वा धन को (अनु, अविष्टन) व्याप्त होओ ॥२५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । यदि मनुष्य विद्यादि शुभ गुणों के देनेवाले, पिता के समान =पालक राजा का आश्रय करें तो पूर्ण प्रज्ञा अविनाशि सेवने योग्य ऐश्वर्य और राज्य को स्थिर कर सकें ॥२५॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा, प्रजा, मित्र, धार्मिक, अमात्य, शत्रुनिवारण तथा धार्मिक सत्कार के अर्थ का प्रतिपादन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अठारहवाँ सूक्त और अट्ठाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    सुदास, दिवोदास, पैजवन आदि का रहस्य

    भावार्थ

    हे ( नरः ) नायक ( मस्तः ) बलदान्, वायुवत् सर्वप्रिय मनुष्यो ! ( दिवः दासम् ) ज्ञान-प्रकाश, सत्य व्यवहार के उपदेश देने वाले पुरुष को ( पितरम् ) पिता के समान ( अनुसश्चत ) जानकर उसका अनुकरण और सेवा, आज्ञा पालन आदि करो। ( सु-दासः ) शुभ ज्ञान और उत्तम द्रव्य के देने वाले ( पैजवनस्य ) उत्तम आचारवान् पुरुष के ( केतम् ) गृह और ज्ञान को ( अविष्टन ) प्राप्त करो, उसकी रक्षा करो। ( दुवोयु ) उत्तम शुश्रूषा के अभिलाषी स्वामी वा गुरुजन के ( दूनाशं ) अविनाशी, (अजरं ) नित्य, स्थायी, ( क्षत्रं ) बलवीर्य को प्राप्त करो । इत्यष्टाविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    प्राणों द्वारा प्रभु की उपासना

    पदार्थ

    [१] हे (नरः) = मुझे उन्नति-पथ पर ले चलनेवाले (मरुतः) = मेरे प्राणो! (इमम्) = इस (दिवोदासम्) = ज्ञान के देनेवाले के समान, (सुदासः पितरम्) = सम्यक् शत्रुओं का उपक्षय करनेवाले उपासक के रक्षक प्रभु को (अनुसश्चात) = प्रतिदिन सेवित करो। मेरे प्राण चित्तवृत्ति के निरोध के द्वारा प्रभु का ध्यान करनेवाले हों। [२] हे प्राणो! आप (पैजवनस्य) = स्वाभाविक वेगवाले-वेग के (पुञ्ज) = प्रभु के (केतम्) = ज्ञान का अविष्टन रक्षण करो। प्रभु से दिये जानेवाले ज्ञान को मेरे में ये प्राण सुरक्षित करें। प्राणायाम से दग्ध दोष निर्मल हृदय में प्रभु का संकेत [प्रेरण] सुनाई पड़ता है। इस प्रकार होने पर इस उपासक का (क्षेत्रम्) = बल (दूणाशम्) = सब बुराइयों को नष्ट करनेवाला, (अजरम्) = कभी न जीर्ण होनेवाला व (दुवोयु) = प्रभु की परिचर्या की कामनावाला होता है। अपनी शक्ति से मानव की सेवा करना ही प्रभु की परिचर्या है। एवं, उपासक अपने बल के द्वारा रक्षणात्मक कार्यों में ही प्रवृत्त होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्राणायाम करते हुए चित्तवृत्ति का निरोध करके प्रभु का उपासन करें। प्रभु के संकेत को समझें। हमारा बल न जीर्ण होनेवाला हो व लोकहित में विनियुक्त हो । अगले सूक्त के भी ऋषि देवता 'वसिष्ठ व इन्द्र' ही है-

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जर माणसांनी विद्या इत्यादी शुभ गुण देणाऱ्या पित्याप्रमाणे पालक असलेल्या राजाचा आश्रय घेतला तर ते पूर्ण अविनाशी प्रज्ञा व स्वीकारण्यायोग्य ऐश्वर्य व राज्य स्थिर करू शकतील. ॥ २५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O leading lights of humanity and vibrant people of the world in general, join, support and celebrate this generous giver of light and life like the father creator of the generous yajaka and high priest of world yajna, and there by join and integrate with the divine and undecaying social order which is the irresistible will and creation of the gracious lord of peace and forgiveness.

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