ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 10
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिपाद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ च॑ष्ट आसां॒ पाथो॑ न॒दीनां॒ वरु॑ण उ॒ग्रः स॒हस्र॑चक्षाः ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठआ । च॒ष्टे॒ । आ॒सा॒म् । पाथः॑ । न॒दीना॑म् । वरु॑णः । उ॒ग्रः । स॒हस्र॑ऽचक्षाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ चष्ट आसां पाथो नदीनां वरुण उग्रः सहस्रचक्षाः ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठआ। चष्टे। आसाम्। पाथः। नदीनाम्। वरुणः। उग्रः। सहस्रऽचक्षाः ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 10
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 10
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 10
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्स विद्वान् कीदृशो भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यथा वरुण उग्रः सहस्रचक्षास्सूर्य आसां नदीनां पाथ आकर्षति पूरयति च तथाभूतो भवान् मनुष्यचित्तान्याकृष्य यतो विद्यामाचष्टे तस्मात्सत्कर्तव्योऽस्ति ॥१०॥
पदार्थः
(आ) (चष्टे) समन्तात्कथयति (आसाम्) (पाथः) उदकम् (नदीनाम्) (वरुणः) सूर्य इव (उग्रः) तेजस्वी (सहस्रचक्षाः) सहस्रं चक्षांसि दर्शनानि यस्माद्यस्य वा ॥१०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो विद्वान् सूर्यवदविद्यां निवार्य विद्याप्रकाशं जनयति स एवात्र माननीयो भवति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् ! जैसे (वरुणः) सूर्य के समान (उग्रः) तेजस्वी जन (सहस्रचक्षाः) जिसके वा जिससे हजार दर्शन होते हैं वह सूर्य (आसाम्) इन (नदीनाम्) नदियों के (पाथः) जल को खींचता और पूरा करता है, वैसे हुए आप मनुष्यों के चित्तों को खींच के जिस कारण विद्या को (आ, चष्टे) कहते हैं, इससे सत्कार करने योग्य हैं ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो विद्वान् सूर्य के तुल्य अविद्या को निवार के विद्या के प्रकाश को उत्पन्न करता है, वही यहाँ माननीय होता है ॥१०॥
विषय
सूर्यवत् शासक का कर्म ।
भावार्थ
( उग्रः ) प्रचण्ड (वरुणः ) सूर्य जिस प्रकार ( नदीनां पाथः आ चष्टे ) नदियों के जल को खींच लेता है उसी प्रकार ( सहस्रचक्षाः ) सहस्रों आज्ञा वचन कहने वाला ( वरुणः ) श्रेष्ठ पुरुष ( उग्रः) बलवान् होकर ( नदीनां ) समृद्ध ( आसां ) इन प्रजाओं के ( पाथः ) पालनकारक राज्य व्यवहार को ( आ चष्टे ) स्वयं देखता है। इसी प्रकार सूर्यवत् सहस्रचक्षु प्रभु इन जीव प्रजाओं के सब व्यवहारों को देखता है । इति पञ्चविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
परमात्मा सहस्त्र चक्षु है
पदार्थ
पदार्थ- (उग्रः) = प्रचण्ड (वरुण:) = सूर्य जैसे (नदीनां पाथः आ चष्टे) = नदियों के जल को खींचता है, वैसे ही (सहस्त्रचक्षाः) = सहस्रों आज्ञावचन कहनेवाला (वरुणः) = श्रेष्ठ पुरुष (उग्रः) = बलवान् होकर (नदीनां) = समृद्ध (आसां) = इन प्रजाओं के (पाथ:) = पालनकारक राज्य व्यवहार को (आ चष्टे) = स्वयं देखता है।
भावार्थ
भावार्थ- परमात्मा सहस्र चक्षु है अर्थात् वह अपने अनन्त नेत्रों से समस्त जीवों के कर्मों को देखता है। उसी प्रकार राजा भी अपने प्रचण्ड प्रभाव से प्रजा के कार्य व्यवहार को स्वयं देखे। इससे राष्ट्र में घातक एवं द्रोही तत्त्व सक्रिय न हो सकेंगे तथा राष्ट्र उन्नति करेगा।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो विद्वान सूर्याप्रमाणे अविद्येचे निवारण करून विद्येचा प्रकाश उत्पन्न करतो तोच माननीय असतो. ॥ १० ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as the refulgent sun, lord of a thousand eyes, watches and reveals the course of the streams of water, so does the brilliant sage of the Word and wisdom commanding a thousand streams of speech oversee the flow of holy speech and communication.
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