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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिपाद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒त न॑ ए॒षु नृषु॒ श्रवो॑ धुः॒ प्र रा॒ये य॑न्तु॒ शर्ध॑न्तो अ॒र्यः ॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । ए॒षु । नृषु॑ । श्रवः॑ । धुः॒ । प्र । रा॒ये । य॒न्तु॒ । शर्ध॑न्तः । अ॒र्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत न एषु नृषु श्रवो धुः प्र राये यन्तु शर्धन्तो अर्यः ॥१८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। नः। एषु। नृषु। श्रवः। धुः। प्र। राये। यन्तु। शर्धन्तः। अर्यः ॥१८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 18
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 8
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते राजजनाः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! ये न एषु राये श्रवो धुस्तेऽस्मान् प्राप्नुवन्तूत ये नः शर्धन्तो नृष्वर्योऽस्माकं राज्यादिकमिच्छेयुस्ते दूरं प्र यन्तु ॥१८॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (नः) अस्माकम्। अत्र वा छन्दःसीत्यवसानम्। (एषु) (नृषु) नायकेषु मनुष्येषु (श्रवः) अन्नं श्रवणं वा (धुः) दध्युः (प्र) (राये) धनाय (यन्तु) गच्छन्तु (शर्धन्तः) बलवन्तः (अर्यः) अरयश्शत्रवः ॥१८॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सज्जनानां निकटे दुष्टानां दूरे स्थित्वा श्रीरुन्नेया ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे राजजन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जो (नः) हमारे (एषु) इन व्यवहारों में (राये) धन के लिये (अवः) अन्न वा श्रवण को (धुः) धारण करें वे हम लोगों को प्राप्त होवें (उत) और जो (नः) हम लोगों को (शर्धन्तः) बली करते हुए (नृषु) नायक मनुष्यों में (अर्यः) शत्रुजन हमारे राज्य आदि ऐश्वर्य को चाहें वे दूर (प्र, यन्तु) पहुँचें ॥१८॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि सज्जनों के निकट और दुष्टों के दूर रह कर लक्ष्मी की उन्नति करें ॥१८॥

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    विषय

    बुध्न्य अहि, मेघवत् सर्वाधार पुरुष ।

    भावार्थ

    विद्वान् लोग, ( नः ) हमारे ( एषु नृषु ) इन नेता पुरुषों में ( श्रवः ) यश, बल, अन्न आदि ( धुः ) धारण करावें । और वे लोग ( शर्धना: ) उत्साह करते हुए (राये ) धन प्राप्त करने के लिये (अर्य: अरीन् ) शत्रुओं को लक्ष्य कर, उन पर ( प्र यन्तु ) चढ़ाई करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शत्रुताप

    पदार्थ

    पदार्थ - विद्वान् लोग, (न:) = हमारे (एषु नृषु) = इन नेता पुरुषों में (श्रवः) = बल, अन्न आदि (धुः) = धारण करें और वे (शर्धन्तः) = उत्साह करते हुए (राये) = धन प्राप्ति हेतु (अर्यः अरीन्) = शत्रुओं को लक्ष्य कर, उन पर (प्र यन्तु) = चढ़ाई करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम विद्वान् जन राष्ट्र नायकों एवं सेनानायकों को उत्तम उपदेश के द्वारा प्रजापालन एवं राष्ट्र वृद्धि हेतु प्रेरित करें। प्रेरणा पाए हुए नायक जन शत्रुओं पर आक्रमण कर उन्हें तपाएँ तथा उन शत्रुओं का ऐश्वर्य छीनकर अपनी प्रजा में वितरित करें। इससे शत्रु श्री: हीन होगा।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी सज्जनांजवळ राहावे व दुष्टांपासून दूर राहून लक्ष्मी वाढवावी. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And may the ruler and governors generate and consolidate food, sustenance and prosperity among these noble people and move forward on way to honour and excellence, strengthening the devoted faithfuls and overcoming the envious rivals and hostile forces of opposition.

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