ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 13
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिगार्चीगायत्री
स्वरः - षड्जः
व्ये॑तु दि॒द्युद्द्वि॒षामशे॑वा यु॒योत॒ विष्व॒ग्रप॑स्त॒नूना॑म् ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठवि । ए॒तु॒ । दि॒द्युत् । द्वि॒षाम् । अशे॑वा । यु॒योत॑ । विष्व॑क् । रपः॑ । त॒नूना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
व्येतु दिद्युद्द्विषामशेवा युयोत विष्वग्रपस्तनूनाम् ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठवि। एतु। दिद्युत्। द्विषाम्। अशेवा। युयोत। विष्वक्। रपः। तनूनाम् ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 13
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते राजजनाः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे राजजना विद्वांसो ! यूयं द्विषामशेवा कुरु तनूनां दिद्युद्विष्वग्रपो युयोत पृथक्कुरुत यतः भद्रान् सर्वान् सुखं व्येतु ॥१३॥
पदार्थः
(वि) विशेषेण (एतु) प्राप्नोतु (दिद्युत्) भृशं द्योतमानम् (द्विषाम्) द्वेष्टॄणाम् (अशेवा) असुखानि (युयोत) (विष्वक्) व्याप्तम् (रपः) अपराधम् (तनूनाम्) शरीराणाम् ॥१३॥
भावार्थः
हे राजजना ! यूयं ये धार्मिकान् पीडयेयुस्तान् दण्डेन पवित्रान् कुरुत यतो सर्वतस्सर्वान् सुखं प्राप्नुयात् ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे राजजन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजजन विद्वानो ! तुम (द्विषाम्) द्वेष करनेवालों को (अशेवा) असुख अर्थात् दुःख को करो (तनूनाम्) शरीरों के (दिद्युत्) निरन्तर प्रकाशमान (विष्वक्) और व्याप्त (रपः) अपराध को (युयोत) अलग करो जिसमें भद्र उत्तम सब मनुष्यों को सुख (वि, एतु) व्याप्त हो ॥१३॥
भावार्थ
हे राजजनो ! तुम, जो धार्मिक सज्जनों को पीड़ा देवें उनको दण्ड से पवित्र करो, जिससे सब ओर से सबको सुख प्राप्त हो ॥१३॥
विषय
विद्वान् जनों के रक्षण आदि कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे वीर पुरुषो ! (दिद्युत् ) खूब चमकता हुआ प्रकाश (विएतु ) विविध दिशाओं में फैले । ( द्विषाम् अशेवा ) शत्रुओं को नाना दुःख प्राप्त हों । ( तनूनाम् ) देह धारियों के ( रपः ) दुःख अपराधों को आप लोग ( विश्वक् ) सब प्रकार से ( युयोत ) पृथक् करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
शत्रु का नाश
पदार्थ
पदार्थ- हे वीर पुरुषो! (दिद्युत्) = खूब चमकता प्रकाश (वि एतु) = विविध दिशाओं में फैले। (द्विषाम् अशेवा) = शत्रुओं को नाना दुःख प्राप्त हों। (तनूनाम्) = देह धारियों के (रपः) = दुःखों को आप (विश्वक्) = सब प्रकार (युयोत) = पृथक् करो।
भावार्थ
भावार्थ- राष्ट्र के वीर योद्धा अपने प्रचण्ड पराक्रम एवं उन्नत सैन्यशक्ति से शत्रुओं का नाश कर राष्ट्र की प्रजा का रक्षण एवं पालन करें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजजनांनो ! जे धार्मिक सज्जन लोकांना त्रास देतात त्यांना दंड देऊन ठीक करा. ज्यामुळे सर्वांना सर्वत्र सुख मिळो. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the flaming arrow and pernicious ill will of the jealous be thrown off far away. Eliminate all the ailments, ill health and infirmities of our body.
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