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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिगार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भि प्र स्था॒ताहे॑व य॒ज्ञं याते॑व॒ पत्म॒न्त्मना॑ हिनोत ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्र । स्था॒त॒ । अह॑ऽइव । य॒ज्ञम् । याता॑ऽइव । पत्म॑न् । त्मना॑ । हि॒नो॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्र स्थाताहेव यज्ञं यातेव पत्मन्त्मना हिनोत ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। प्र। स्थात। अहऽइव। यज्ञम्। याताऽइव। पत्मन्। त्मना। हिनोत ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कन्याः कथं विद्यां वर्धयेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे कन्या ! यूयं विद्याप्राप्तयेऽहेव यज्ञमभिप्रस्थात त्मना पत्मन् यातेव हिनोत ॥५॥

    पदार्थः

    (अभि) (प्र) (स्थात) (अहेव) अहानीव (यज्ञम्) अध्ययनाध्यापनाख्यम् (यातेव) गच्छन्निव (पत्मन्) मार्गे (त्मना) आत्मना (हिनोत) वर्धयत ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे कन्या ! यथा दिनान्यनुक्रमेण गच्छन्त्याऽऽगच्छन्ति यथा च पथिका नित्यं चलन्ति तथैवानुक्रमेण विद्याप्राप्तिमार्गेण विद्याप्राप्तिरूपं यज्ञं वर्धयत ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कन्याजन कैसे विद्या को बढ़ावें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे कन्याओ ! तुम विद्याप्राप्ति के लिये (अहेव) दिनों के समान (यज्ञम्) पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञ के (अभि, प्र, स्थात) सब ओर से जाओ (त्मना) अपने से (पत्मन्) मार्ग में (यातेव) जाते हुए के समान (हिनोत) बढ़ाओ ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे कन्याओ ! जैसे दिन अनुकूल क्रम से जाते और आते हैं और जैसे बटोही जन नित्य चलते हैं, वैसे ही अनुकूल क्रम से विद्याप्राप्ति मार्ग से विद्याप्राप्तिरूप यज्ञ को बढ़ाओ ॥५॥

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    विषय

    नायक का कर्त्तव्य । सन्मार्ग पर बढ़ने का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! ( अह इव ) और आप लोग ( यज्ञं अभि ) पूजनीय प्रभु, सत्संग, यज्ञ आदि को लक्ष्य कर ( प्र स्थात ) आगे बढ़ो । (याता इव) यात्री या जाने वाले पुरुष के समान ( त्मना ) आत्म सामर्थ्य से ( पत्मन् ) सन्मार्ग पर (हिनोत) आगे बढ़ो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सन्मार्ग पर बढ़ना

    पदार्थ

    पदार्थ- हे विद्वान् स्त्री पुरुषो! (अह इव) = और आप लोग (यज्ञं अभि) = पूजनीय प्रभु, सत्संग, यज्ञ आदि को लक्ष्य कर (प्र स्थात) = आगे बढ़ो। (याता इव) = यात्री या जानेवाले पुरुष के समान (त्मना) = आत्म सामर्थ्य से (पत्मन्) = सन्मार्ग पर (हिनोत) = आगे बढ़ो।

    भावार्थ

    भावार्थ- जिस प्रकार यात्री अपने पुरुषार्थ से अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ता जाता है उसी प्रकार स्त्री-पुरुषों को भी पुरुषार्थ एवं उत्साह के साथ सन्मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ते हुए जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करना चाहिए।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे कन्यांनो ! जसे दिवस अनुक्रमानुसार चालतात व प्रवासी नित्य प्रवास करतात तसेच अनुकूल क्रमाने विद्याप्राप्ती मार्गाने विद्याप्राप्तीरूपी यज्ञ वाढवा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Like the dawn go forward to the yajna of the day and, like the pilgrim of divinity, advance on the way with self-confidence and enthusiasm.

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