ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
आ धू॒र्ष्व॑स्मै॒ दधा॒ताश्वा॒निन्द्रो॒ न व॒ज्री हिर॑ण्यबाहुः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठआ । धू॒र्षु । अ॒स्मै॒ । दधा॑त । अश्वा॑न् । इन्द्रः॑ । न । व॒ज्री । हिर॑ण्यऽबाहुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ धूर्ष्वस्मै दधाताश्वानिन्द्रो न वज्री हिरण्यबाहुः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठआ। धूर्षु। अस्मै। दधात। अश्वान्। इन्द्रः। न। वज्री। हिरण्यऽबाहुः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ताः कन्या विद्यायै कं यत्नं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे कन्या ! यूयमस्मै धूर्ष्वश्वान् हिरण्यबाहुर्वज्रीन्द्रो न ब्रह्मचर्यमा दधात ॥४॥
पदार्थः
(आ) (धूर्षु) रथाधारेषु (अस्मै) विद्याग्रहणाय (दधात) (अश्वान्) शीघ्रगामितुरङ्गान् (इन्द्रः) सूर्य इव राजा (न) इव (वज्री) शस्त्रास्त्रयुक्तः (हिरण्यबाहुः) हिरण्यं बाह्वोर्दानाय यस्य सः ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा सारथिरश्वान् रथे संयोज्य नियमेन चालयति तथा कन्या आत्मान्तःकरणेन्द्रियाणि विद्याप्रापणे व्यवहारे नियोज्य नियमेन चालयन्तु ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कन्या विद्या के लिये क्या यत्न करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे कन्याओ ! तुम (अस्मै) इस विद्याग्रहण करने के लिये (धूर्षु) रथों के आधार धुरियों में (अश्वान्) घोड़े और (हिरण्यबाहुः) जिसकी भुजाओं में दान के लिये हिरण्य विद्यमान उस (वज्री) शस्त्र अस्त्रों से युक्त (इन्द्रः) सूर्यतुल्य राजा के (न) समान ब्रह्मचर्य को (आ, दधात) अच्छे प्रकार धारण करो ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे सारथी घोड़ों को रथ में जो़ड़ कर नियम से चलाता है, वैसे कन्या आत्मा अन्तःकरण और इन्द्रियों को विद्या की प्राप्ति से व्यवहार में निरन्तर जोड़ कर नियम से चलावें ॥४॥
विषय
नायक का कर्त्तव्य । सन्मार्ग पर बढ़ने का उपदेश ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! ( अस्मै ) इस नायक के ही लिये (धूर्षु) धुराओं में ( अश्वान् ) अश्वों को ( दधात ) धारण करो । ( इन्द्रः ) वह ऐश्वर्यवान् ही ( वज्री ) हाथ में वज्र, बल, वीर्य, शस्त्रास्त्र सैन्य को धारण करने और ( हिरण्य-बाहुः ) सुवर्णादि धन को अपने बाहुबल से रखने वाला है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
नायक के प्रति कर्त्तव्य
पदार्थ
पदार्थ- हे विद्वान् पुरुषो! (अस्मै) = इस नायक के लिये (धूर्षु) = धुराओं में (अश्वान्) = अश्वों को (दधात) = लगाओ। (इन्द्रः) = वह ऐश्वर्यवान् (वज्री) = बली, शस्त्रधारक और (हिरण्य-बाहुः) = सुवर्णादि को बाहुबल से रखनेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वानों को चाहिए कि वे राष्ट्र के नायक राजा के लिए ऐश्वर्य का संग्रह करें जैसे भृत्य अपने मालिक के लिए अश्वों को जुए में जोतकर रथ को तैयार करता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सारथी घोड्यांना रथाला जोडून नियमपूर्वक चालवितो तसे कन्यांनी आत्मा, अंतःकरण व इंद्रियाद्वारे विद्येची प्राप्ती करून त्यांना व्यवहारात नियमपूर्वक चालवावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Like Indra of the thunderbolt and golden hands of charity, rally the fastest forces and harness them to the centre pole of the earthly order in the service of Indra, the ruler.
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