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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिपाद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ह्वया॑मि दे॒वाँ अया॑तुरग्ने॒ साध॑न्नृ॒तेन॒ धियं॑ दधामि ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह्वया॑मि । दे॒वान् । अया॑तुः । अ॒ग्ने॒ । साध॑न् । ऋ॒तेन॑ । धिय॑म् । द॒धा॒मि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ह्वयामि देवाँ अयातुरग्ने साधन्नृतेन धियं दधामि ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ह्वयामि। देवान्। अयातुः। अग्ने। साधन्। ऋतेन। धियम्। दधामि ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरध्यापका अध्येतॄन् किमुपदिशेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यथाऽहं देवान् ह्वयाम्यृतेन साधन्धियं दधाम्ययातुः स्थिराद्विद्यां गृह्णामि तथा त्वं कन्यापाठनस्य निबन्धं कुरु ॥८॥

    पदार्थः

    (ह्वयामि) (देवान्) विदुषः (अयातुः) यो न याति तस्मात् (अग्ने) विद्वन् (साधन्) (ऋतेन) सत्येन व्यवहारेण (धियम्) प्रज्ञां शुभं कर्म वा (दधामि) ॥८॥

    भावार्थः

    ये विदुष आहूय सत्कृत्य सत्याचारेण विद्यां धरन्ति ते विद्वांसो भवन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर अध्यापक, अध्येताओं को क्या उपदेश करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् ! जैसे मैं (देवान्) विद्वानों को (ह्वयामि) बुलाता हूँ (ऋतेन) सत्य व्यवहार से (साधन्) सिद्ध करता हुआ (धियम्) उत्तम बुद्धि वा शुभ कर्म को (दधामि) धारण करता हूँ और (अयातुः) जो नहीं जाता उस स्थिर से विद्या ग्रहण करता हूँ, वैसे आप कन्या पढ़ाने का निबन्ध करो ॥८॥

    भावार्थ

    जो विद्वानों को बुला के और उनका सत्कार कर सत्य आचार से विद्या को धारण करते हैं, वे विद्वान् होते हैं ॥८॥

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    विषय

    पृथिवीवत् स्त्री के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! विद्वन् ! मैं ( अयातुः ) अन्यत्र कहीं भी न जाकर, वा किसी को भी पीड़ा न देता हुआ, अहिंसाव्रती होकर ( देवान् ) विद्या, धनादि की कामना करने वाले शिष्यों को ( ह्वयामि ) प्रेमपूर्वक बुलाता हूं। मैं ( ऋतेन ) सत्य ज्ञान और सत्य व्यवहार के द्वारा ( साधन् ) साधना करता हुआ ( धियं दधामि ) ज्ञान प्रदान करूं और कर्म करूं । इसी प्रकार हे विद्वन् ! मैं शिष्य भी विद्वानों को प्रार्थना करूं कि मैं स्थिर होकर सत्य निष्ठापूर्वक साधना करता हुआ ( धियं ) ज्ञान, और कर्म को धारण करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शिष्यों से प्रेम

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (अग्ने) = तेजस्विन्! मैं (अयातुः) = अहिंसाव्रती होकर (देवान्) = विद्या कामनावाले शिष्यों को (ह्वयामि) = बुलाता हूँ। मैं (ऋतेन) = सत्य-व्यवहार द्वारा (साधन्) = साधना करता हुआ (धियं दधामि) = ज्ञान प्रदान करूँ और कर्म करूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम आचार्य अपने शिष्यों को प्रीति के साथ समस्त विद्याओं को पढ़ावे। वह अन्य किसी भी कार्य में प्रवृत्त न होकर सदैव शिष्यों की ज्ञानोन्नति में ही लगा रहे ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वानांना बोलावून त्यांचा सत्कार करून सत्याचरणाने विद्या धारण करतात ते विद्वान होतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of light and life, I invoke the divinities of nature and humanity, living life by the practice of truth and eternal law, and I acquire the wisdom of life and action from the teacher dedicated to peace and non violence.

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