ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 17
मा नोऽहि॑र्बु॒ध्न्यो॑ रि॒षे धा॒न्मा य॒ज्ञो अ॑स्य स्रिधदृता॒योः ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । अहिः॑ । बु॒ध्न्यः॑ । रि॒षे । धा॒त् । मा । य॒ज्ञः । अ॒स्य॒ । स्रि॒ध॒त् । ऋ॒त॒ऽयोः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धान्मा यज्ञो अस्य स्रिधदृतायोः ॥१७॥
स्वर रहित पद पाठमा। नः। अहिः। बुध्न्यः। रिषे। धात्। मा। यज्ञः। अस्य। स्रिधत्। ऋतऽयोः ॥१७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 17
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 7
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते राजजनाः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यथा बुध्न्योऽहिर्नो रिषे मा धात् यथाऽस्यर्तायो राज्ञो यज्ञो मा स्रिधत् तथाऽनुतिष्ठत ॥१७॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (नः) अस्मान् (अहिः) मेघः (बुध्न्यः) बुध्नेऽन्तरिक्षे भवः (रिषे) हिंसनाय (धात्) दध्यात् (मा) निषेधे (यज्ञः) राजपालनीयो व्यवहारः (अस्य) राज्ञः (स्रिधत्) हिंसितः स्यात् (ऋतायोः) ऋतं सत्यं न्यायधर्मं कामयमानस्य ॥१७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजादयो मनुष्या ! यथाऽवृष्टिर्न स्यात् न्यायव्यवहारो न नश्येत्तथा तथा यूयं विधत्त ॥१७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे राजजन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! जैसे (बुध्न्यः) अन्तरिक्ष में उत्पन्न हुआ (अहिः) मेघ (नः) हम लोगों को (रिषे) हिंसा के लिये (मा) मत (धात्) धारण करे वा जैसे (अस्य) इस (ऋतायोः) सत्य न्याय धर्म की कामना करनेवाले राजा का (यज्ञः) प्रजा पालन करने योग्य व्यवहार (मा) मत (स्रिधत्) नष्ट हो वैसा अनुष्ठान करो ॥१७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे राजन् आदि मनुष्यो ! जैसे अवर्षण न हो, न्यायव्यवहार न नष्ट हो, वैसा तुम विधान करो ॥१७॥
विषय
बुध्न्य अहि, मेघवत् सर्वाधार पुरुष ।
भावार्थ
( बुध्न्यः अहिः ) आकाशस्थ मेघ के समान ( बुध्न्यः ) उदार, बुध विद्वान् पुरुषों द्वारा सन्मार्ग पर सञ्चालित, वा आकाश में स्थित, सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष ( नः ) हमें ( रिषे ) हिंसा पीड़ा के लिये वा हिंसक लाभ के लिये ( मा धात् ) न रख छोड़े । (अस्य ऋतायोः) इस सत्य व्यवहार, अन्न और धनाभिलाषी राजा का ( यज्ञः ) दान, संगति, आदि ( मा स्त्रिधत्) नष्ट न हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
मेघवत् राष्ट्र नायक पुरुष
पदार्थ
पदार्थ- (बुध्न्यः अहिः) = आकाशस्थ मेघ-तुल्य (बुध्न्यः) = उदार, विद्वान् पुरुषों द्वारा सञ्चालित तेजस्वी पुरुष (न:) = हमें (रिषे) = हिंसक के लाभ के लिये (मा धात्) = न रखे। (अस्य ऋतायोः) = और धनाभिलाषी राजा का (यज्ञ:) = दान आदि (मा स्त्रिधत्) = नष्ट न हो। अन्न
भावार्थ
भावार्थ- जिस प्रकार आकाश में स्थित बादल सब जीवों के हित के लिए वर्षते हैं। उसी प्रकार उत्तम विद्वानों के द्वारा अभिषिक्त राजा प्रजा जनों के लिए उत्तम अन्न, उत्तम संगति तथा हित साधक साधन देकर उन्हें हर्षित करे।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा इत्यादी माणसांनो! अवर्षण होणार नाही व न्याय व्यवहार नष्ट होणार नाही असे तुम्ही विधान करा. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the yajnic governance and administration of this ruler dedicated to truth and eternal law never rule us with the motive of hurt and exploitation. So may also the cloud in the firmament never hurt us by excess or drought of rain.
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