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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 15
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिपाद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स॒जूर्दे॒वेभि॑र॒पां नपा॑तं॒ सखा॑यं कृध्वं शि॒वो नो॑ अस्तु ॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ऽजूः । दे॒वेभिः॑ । अ॒पाम् । नपा॑तम् । सखा॑यम् । कृ॒ध्व॒म् । शि॒वः । नः॒ । अ॒स्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सजूर्देवेभिरपां नपातं सखायं कृध्वं शिवो नो अस्तु ॥१५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सऽजूः। देवेभिः। अपाम्। नपातम्। सखायम्। कृध्वम्। शिवः। नः। अस्तु ॥१५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 15
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते राजजनाः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यथा देवेभिस्सजूस्सूर्योऽपां नपातं करोति तथा भवान् नः शिवोऽस्तु। हे विद्वांस ! ईदृशं राजानं नस्सखायं यूयं कृध्वम् ॥१५॥

    पदार्थः

    (सजूः) सह वर्त्तमानः (देवेभिः) विद्वद्भिर्दिव्यैः पृथिव्यादिभिर्वा (अपाम्) जलानाम् (नपातम्) यो न पतति न नश्यति तं मेघमिव (सखायम्) सुहृदम् (कृध्वम्) कुरुध्वम् (शिवः) मङ्गलकारी (नः) अस्मभ्यमस्माकं वा (अस्तु) ॥१५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्यादयः पदार्थाः जगति मित्रवद्वर्तित्वा सुखकारिणो भवन्ति तथैव राजजनाः सर्वेषां सखायो भूत्वा मङ्गलकारिणो भवन्ति ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे राजजन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जैसे (देवेभिः) विद्वानों से वा पृथिवी आदि दिव्य पदार्थों के (सजूः) साथ वर्त्तमान सूर्यमण्डल (अपां नपातम्) जलों के उस व्यवहार को जो नहीं नष्ट होता मेघ के समान करता है, वैसे आप (नः) हमारे वा हमारे लिये (शिवः) मङ्गलकारी (अस्तु) हों, हे विद्वानो ! ऐसे राजा को हमारा (सखायम्) मित्र (कृध्वम्) कीजिये ॥१५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य आदि पदार्थ जगत् में मित्र के समान वर्त कर सुखकारी होते हैं, वैसे ही राजजन सब के मित्र होकर मङ्गलकारी होते हैं ॥१५॥

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    विषय

    मित्र होने योग्य मेघ सूर्यवत् पुरुष ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! ( देवेभिः सजूः ) किरणों पृथिव्यादि तत्त्वों के सहित वर्त्तमान अग्नि वा सूर्य के समान (अपां नपातं ) जलों को न गिरने देने वाले, मेघवत् उपकारक प्रजाओं को वा प्राणों को नाश न होने देने वाले पुरुष को अपना ( सखायं कृध्वम् ) मित्र बनाओ। वह ( नः ) हमारा ( शिवः ) कल्याणकारक ( अस्तु ) हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सूर्य समान तेजस्वी बनो

    पदार्थ

    पदार्थ- हे विद्वान् पुरुषो! (देवेभिः सजूः) = पृथिव्यादि तत्त्वों सहित अग्नि वा सूर्य के समान (अपां नपातं) = जलों को न गिरने देनेवाले, प्रजाओं का नाश न होने देनेवाले पुरुष को अपना (सखायं कृध्वम्) = मित्र बनाओ। वह (नः) = हमारा (शिवः) = कल्याणकारक (अस्तु) = हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ-जैसे सूर्य अपने तेज से भूमि पर जल बरसा कर भूमि को तृप्त एवं जीवों को सुखी करता है उसी प्रकार विद्वान् भी अपने ब्रह्मतेज से वेदोपदेश करके प्रजा जनों को तृप्त एवं सुखी करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे सूर्य इत्यादी पदार्थ जगात मित्राप्रमाणे वागून सुखकारी ठरतात तसेच राजजन सर्वांचे मित्र बनून कल्याण करतात. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Be friends with Agni, fire and the sun, which creates the indestructible waters of space and the firmament, along with other nature’s divinities, so that there may be happiness and well being in our life.

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