ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 24
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृदार्षीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अनु॒ तदु॒र्वी रोद॑सी जिहाता॒मनु॑ द्यु॒क्षो वरु॑ण॒ इन्द्र॑सखा। अनु॒ विश्वे॑ म॒रुतो॒ ये स॒हासो॑ रा॒यः स्या॑म ध॒रुणं॑ धि॒यध्यै॑ ॥२४॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । तत् । उ॒र्वी इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । जि॒हा॒ता॒म् । अनु॑ । द्यु॒क्षः । वरु॑णः । इन्द्र॑ऽसखा । अनु॑ । विश्वे॑ । म॒रुतः॑ । ये । स॒हासः॑ । रा॒यः । स्या॒म॒ । ध॒रुण॑म् । धि॒यध्यै॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु तदुर्वी रोदसी जिहातामनु द्युक्षो वरुण इन्द्रसखा। अनु विश्वे मरुतो ये सहासो रायः स्याम धरुणं धियध्यै ॥२४॥
स्वर रहित पद पाठअनु। तत्। उर्वी इति। रोदसी इति। जिहाताम्। अनु। द्युक्षः। वरुणः। इन्द्रऽसखा। अनु। विश्वे। मरुतः। ये। सहासः। रायः। स्याम। धरुणम्। धियध्यै ॥२४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 24
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनविद्वांसः किंवत्किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यथोर्वी रोदसी तदनु जिहातामिन्द्रसखा द्युक्षो वरुणोऽनुजिहातां ये विश्वे सहासो मरुतोऽनुजिहातान्तथा वयं रायो धरुणं धियध्यै शक्तिमन्तः स्याम ॥२४॥
पदार्थः
(अनु) (तत्) तानि (उर्वीः) बहुपदार्थयुक्ते (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (जिहाताम्) प्राप्नुतः (अनु) (द्युक्षः) यो दिवः प्रकाशान् वासयति (वरुणः) श्रेष्ठः (इन्द्रसखा) इन्द्रः परमैश्वर्यो राजा सखा यस्य सः (अनु) (विश्वे) सर्वे (मरुतः) मनुष्याः (ये) (सहासः) सहनशीलाः बलवन्तः (रायः) धनस्य (स्याम) (धरुणम्) (धियध्यै) धर्तुं समर्थाः ॥२४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथा सृष्टिस्था भूम्यादयः पदार्थास्सर्वान् धृत्वा सुखं प्रयच्छन्ति तथैव यूयं भवत ॥२४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! जैसे (उर्वीः) बहुपदार्थयुक्त (रोदसी) आकाश और पृथिवी (तत्) उन पदार्थों को (अनु, जिहाताम्) अनुकूल प्राप्त हों वा (इन्द्रसखा) परमैश्वर्य राजा सखा मित्र जिस का (द्युक्षः) प्रकाशों को वसाता (वरुणः) और श्रेष्ठ जन (अनु) पीछे जावे वा (ये) जो (विश्वे) सब (सहासः) सहनशील और बलवान् (मरुतः) मनुष्य अनुकूलता से प्राप्त हों, वैसे हम लोग (रायः) धन के (धरुणम्) धारण करनेवाले को (धियध्यै) धारण करने को समर्थ (स्याम) हों ॥२४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे सृष्टिस्थ भूमि आदि पदार्थ सब को धारण कर सुख देते हैं, वैसे ही आप हों ॥२४॥
विषय
सूर्य भूमिवत् सैन्य,और सेनापति आदि के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( तत् उर्वी रोदसी ) वे दोनों विशाल दुष्टों को रुलाने वाले सेनापति, सेनानायक और सूर्य और भूमि के समान स्त्री पुरुष भी ( अनु जिहातम् ) एक दूसरे के अनुकूल होकर प्राप्त हों । ( द्यु-क्षाः ) प्रकाशों का धारक सूर्यवत् तेजस्वी, और ( इन्द्र-सखा ) ऐश्वर्यवान् का मित्र ( वरुणः ) दुष्टवारक, सर्वश्रेष्ठ राजा ( अनु ) अनुकूल रहे । ( ये सहासः मरुतः ) जो शत्रुविजयी, तपस्वी, वीर विद्वान् पुरुष हैं वे (विश्वे) सब भी ( अनु ) अनुकूल हों । हम लोग ( रायः धियध्यै ) ऐश्वर्य को धारण करने के लिये ( धरुणं ) सुरक्षित पात्रवत् ( स्याम ) हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
राजा और सेनापति प्रजा के अनुकूल हों
पदार्थ
पदार्थ- (तत् उर्वी रोदसी) = वे दोनों महान् सेनापति, सेनानायक, सूर्य-भूमि के समान स्त्रीपुरुष भी (अनु जिहाताम्) = परस्पर अनुकूल होकर प्राप्त हों। (द्यु-क्षाः)= प्रकाशों का धारक सूर्यवत् तेजस्वी और (इन्द्र-सखा) = ऐश्वर्यवान् का मित्र (वरुणः) = श्रेष्ठ राजा (अनु) = अनुकूल रहे। ये हम (सहासः मरुतः) = जो शत्रुविजयी, तपस्वी विद्वान् पुरुष हैं वे (विश्वे) = सब (अनु) = अनुकूल हों। लोग (रायः धियध्यै) = ऐश्वर्यधारण के लिये (धरुणं) = सुरक्षित पात्रवत् (स्याम) = हों ।
भावार्थ
भावार्थ- राष्ट्र में सेनापति, विद्वान् तथा समस्त स्त्री-पुरुष प्रजाएँ राजा के अनुकूल राजा भी इन सबके अनुकूल होवे। इससे राजा, विद्वान्, सेना व सेनापति तथा समस्त प्रजाजन मिलकर राष्ट्र को समृद्ध बनाकर राष्ट्र को उन्नत कर सकेंगे।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जसे सृष्टीतील पदार्थ सर्वांना धारण करून सुख देतात तसे तुम्ही व्हा. ॥ २४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the wide earth and heaven be kind and favourable to us and procure for us the wealth, honour and excellence of life we pray for. May the refulgent sun, the ocean, the friendly powers of the ruling lord Indra, and all the winds of space and vibrant heroes of the world who command both challenging force and fortitude be favourable so that we may be able to hold and manage the wealth, honour and excellence of life which the divinities of nature and humanity have given us.
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