ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 11
ते नो॑ ना॒वमु॑रुष्यत॒ दिवा॒ नक्तं॑ सुदानवः । अरि॑ष्यन्तो॒ नि पा॒युभि॑: सचेमहि ॥
स्वर सहित पद पाठते । नः॒ । ना॒वम् । उ॒रु॒ष्य॒त॒ । दिवा॑ । नक्त॑म् । सु॒ऽदा॒न॒वः॒ । अरि॑ष्यन्तः । नि । पा॒युऽभिः॑ । स॒चे॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते नो नावमुरुष्यत दिवा नक्तं सुदानवः । अरिष्यन्तो नि पायुभि: सचेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठते । नः । नावम् । उरुष्यत । दिवा । नक्तम् । सुऽदानवः । अरिष्यन्तः । नि । पायुऽभिः । सचेमहि ॥ ८.२५.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
May they all, nobly generous and giving, protect our ships day and night, and may we all, unhurt and unviolated, ally and cooperate with our protectors.
मराठी (1)
भावार्थ
जे राज्याच्या रक्षणात नियुक्त असतील त्यांनी सतर्क होऊन सर्व पदार्थांवर लक्ष ठेवावे, ज्यामुळे प्रजा सुखी होईल. ॥११॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेवार्थं दर्शयति ।
पदार्थः
हे सुदानवः=शोभनदातारः सेनानायकाः ! ते=यूयम् । नोऽस्माकम् । नावम् । दिवा नक्तम् । उरुष्यत=पालयत । पायुभिः=रक्षकैर्युष्माभिः सह । अरिष्यन्तः=अहिंसिता वयम् । निसचेमहि=नितरां समवेता भवेम ॥११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसी अर्थ को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(सुदानवः) हे अपनी रक्षा से सुन्दर दान देनेवाले सेनानायको ! (ते) वे आप सब (नः+नावम्) हमारे व्यापारी जहाजों को (दिवा) दिन में (नक्तम्) रात्रि में (उरुष्यत) पालिये और (पायुभिः) आप रक्षकों के साथ हम सब (अरिष्यन्तः) हिंसित न होकर अर्थात् अच्छे प्रकार पालित होकर (निसचेमहि) अपने-२ काम में सदा लगे हुए रहें ॥११ ॥
भावार्थ
जो राज्य की रक्षा में नियुक्त हों, वे सचिन्त होकर सब पदार्थों के ऊपर ध्यान रक्खें, जिससे प्रजाएँ सुखी रहें ॥११ ॥
विषय
उत्तम माता पिता से रक्षा की प्रार्थना।
भावार्थ
हे ( सु-दानवः ) उत्तम दानशील पुरुषो ! (ते) वे आप लोग ( दिवा नक्तं ) दिन और रात ( नः नावम् ) हमारी नौका वा प्रेरणा करने योग्य यान की ( उरुष्यत ) रक्षा करो। और हम ( अरिष्यन्तः ) विना पीड़ित हुए किसी का हिंसा न करते हुए ( पायुभिः ) पालन करने वालों के साथ ( सचेमहि ) सदा संघ बना कर रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
शरीररूप नाव का रक्षण
पदार्थ
[१] हे (मरुतो) = प्राणो ! (सुदानवः) = सम्यक् वासनाओं को खण्डित करनेवाले (ते) = वे आप (नः) = हमारी (नावम्) = नौका को, इस जीवन-यात्रा की पूर्णता की साधनभूत शरीररूप नाव को (दिवा नक्तम्) = दिन-रात (उरुष्यत) = रक्षित करो। [२] हम (अरिष्यन्तः) = अहिंसित होते हुए (पायुभिः) = रक्षक प्राणों से (निसचेमहि) = नितरां समवेत हों।
भावार्थ
भावार्थ-प्राण ही सुदानु हैं, सम्यक् वासनारूप शत्रुओं का खण्डन करनेवाले हैं। ये हमारी शरीररूप नाव का रक्षण करें। हम इन रक्षक प्राणों के साथ सदा समवेत हों।
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