ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 19
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
उदु॒ ष्य श॑र॒णे दि॒वो ज्योति॑रयंस्त॒ सूर्य॑: । अ॒ग्निर्न शु॒क्रः स॑मिधा॒न आहु॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । स्यः । श॒र॒णे । दि॒वः । ज्योतिः॑ । अ॒यं॒स्त॒ । सूर्यः॑ । अ॒ग्निः । न । शु॒क्रः । स॒म्ऽइ॒धा॒नः । आऽहु॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु ष्य शरणे दिवो ज्योतिरयंस्त सूर्य: । अग्निर्न शुक्रः समिधान आहुतः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊँ इति । स्यः । शरणे । दिवः । ज्योतिः । अयंस्त । सूर्यः । अग्निः । न । शुक्रः । सम्ऽइधानः । आऽहुतः ॥ ८.२५.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
And that sun upto the regions of heaven radiates the light and, shining pure and bright, is invoked, invited and honoured as the holy fire.
मराठी (1)
भावार्थ
जे सदैव सत्य इत्यादी व्रत पालन करत ज्ञानोपार्जन व परोपकार करतात ते ब्राह्मण असतात. ॥१९॥
संस्कृत (1)
विषयः
ब्राह्मणगुणान् दर्शयति ।
पदार्थः
स्यः=सः । दिवः+शरणे=द्युलोकस्य स्थाने । सूर्य्य इव । ज्योतिः । उदयंस्त=उद्यच्छति=उर्ध्वं गमयति । उ=प्रसिद्धम् । अग्निर्न=अग्निरिव । शुक्रः=दीप्यमानः । समिधानः=संदीपयन् । पुनः । आहुतः=सर्वैस्तर्पितो भवति ॥१९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
ब्राह्मण के गुण दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(स्यः) वह मनुष्य हितकारी ब्राह्मण (दिवः+शरणे) द्युलोक तक (सूर्य्यः) सूर्य्य के समान (उद्+अयंस्त+ज्योतिः) ज्योति और विज्ञान को फैलाते हैं (उ) यह बात प्रसिद्ध है और (अग्निर्न) अग्नि के समान स्वयं (शुक्रः) दीप्यमान होते हुए (समिधानः) जगत् को प्रकाशित करते हुए (आहुतः) मनुष्यमात्र से प्रसादित और तर्पित होते हैं ॥१९ ॥
भावार्थ
जो सदा सत्यादि व्रत पालते हुए ज्ञानोपार्जन और परोपकार में ही लगे रहते हैं, वे ब्राह्मण हैं ॥१९ ॥
विषय
विश्वपति वरुण, प्रकाशस्वरूप ईश्वर
भावार्थ
( स्यः ) वह ( दिवः शरणे ) प्रकाश को बखेर कर दूर २ तक फैलाने में ( सूर्य: ) सूर्य के समान ( ज्योतिः ) स्वयं प्रकाशस्वरूप प्रभु ( शरणे ) इस महान् विश्व में ( उत् अयंस्त ) सबके ऊपर विराज कर सब को वश करता है। वह ( अग्निः न शुक्रः ) अग्नि के समान देदीप्यमान, ( समिधा आहुतः न ) काष्ठ से आहुति युक्त चमकने वाले अग्नि के तुल्य ही ( आहुतः ) सबसे स्तुति किया जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु ही 'सूर्य' हैं, प्रभु ही 'अग्नि'
पदार्थ
[१] (स्यः) = वे प्रभु (सूर्य:) = सूर्य हैं। और (दिवः शरणे) = इस देदीप्यमान आदित्य के गृह में, अर्थात् द्युलोक में (ज्योतिः उदयंस्त) = प्रकाश को उदित करते हैं। सम्पूर्ण द्युलोक को प्रभु ही (अवभासित) = करते हैं। यह सूर्य व ये सब नक्षत्र प्रभु के प्रकाश से ही तो प्रकाशित हो रहे हैं। सूर्य के भी सूर्य प्रभु ही हैं। [२] ये प्रभु ही (अग्निः न) = इस अग्निदेव के समान (शुक्रः) = देदीप्यमान हैं। (समिधानः) = स्तोताओं से अपने हृदयों में समिद्ध किये जाते हैं और (आहुतः) = [आ हुते यस्य] सर्वत्र दानोंवाले हैं। और अन्ततः सब प्रभु के प्रति ही अपना अर्पण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही सूर्य के रूप में द्युलोक को अवभासित करते हैं। प्रभु ही अग्नि के रूप में समिद्ध व आहुत होते हैं।
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