ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 21
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
तत्सूर्यं॒ रोद॑सी उ॒भे दो॒षा वस्तो॒रुप॑ ब्रुवे । भो॒जेष्व॒स्माँ अ॒भ्युच्च॑रा॒ सदा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । सूर्य॑म् । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । दो॒षा । वस्तोः॑ । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । भो॒जेषु॑ । अ॒स्मान् । अ॒भि । उत् । च॒र॒ । सदा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्सूर्यं रोदसी उभे दोषा वस्तोरुप ब्रुवे । भोजेष्वस्माँ अभ्युच्चरा सदा ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । सूर्यम् । रोदसी इति । उभे इति । दोषा । वस्तोः । उप । ब्रुवे । भोजेषु । अस्मान् । अभि । उत् । चर । सदा ॥ ८.२५.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 21
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
That sun of light and knowledge and both heaven and earth, I adore day and night and pray that the lord may establish us in a prosperous state of food and enjoyment.
मराठी (1)
भावार्थ
जर राज्यप्रचलित व ईश्वरीय नियमांना चांगल्या प्रकारे मानले तरच आम्ही धनाचे अधिकारी बनू शकतो. ॥२१॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेवार्थमाह ।
पदार्थः
सूर्य्यमिव । तद्वारुणं मैत्रञ्च तेजः । उभे+रोदसी=उभौ लोकौ व्याप्तम् । दोषा=रात्रौ । वस्तोः=दिने च । उपब्रुवे=तत्स्तौमि । हे मित्र ! भोजेषु=भोग्यपदार्थेषु । अस्मान् । सदा । अभ्युच्चर=उद्गमय=स्थापय ॥२१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
(सूर्य्यम्) सूर्य्य के समान (तत्) मित्र और वरुण का वह-२ नियम और उपाय (उभे+रोदसी) दोनों लोकों में प्रचलित है, उसको मैं (दोषा) रात्रि में (वस्तोः) दिन में (उपब्रुवे) उसकी स्तुति करता हूँ अर्थात् सर्वदा उसका प्रचार करता हूँ । हे भगवन् ! (अस्मान्) वैसे हम लोगों को (सदा) सर्वदा (भोजेषु) विविध अभ्युदयों के ऊपर (अभ्युच्चर) स्थापित कर ॥२१ ॥
भावार्थ
हम लोग तब ही धनों के अधिकारी हो सकते हैं, जब राज्यप्रचालित और ईश्वरीय नियमों को अच्छे प्रकार मानें ॥२१ ॥
विषय
प्रभु की स्तुति।
भावार्थ
( दोषा वस्तोः ) दिन और रात ( उभे रोदसी ) आकाश वा सूर्य और पृथिवी, समस्त जगत् के ( सूर्यम् ) संचालक, प्रकाशक, सूर्यवत् तेजस्वी ( तत् ) उस प्रभु की मैं ( उप ब्रुवे ) स्तुति करता हूं। हे प्रभो ! तू ( सदा ) सब काल, ( अस्मान् ) हमें ( भोजेषु ) पालक जनों और भोगैश्वर्य देने वाले लोकों में ( अभि उत् चर ) उन्नति की ओर ले जा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु-स्तवन व दानशीलता
पदार्थ
[१] मैं (दोषावस्तोः) = दिन-रात (उभे रोदसी:) = इन दोनों द्यावापृथिवी के (तत्) = उस (सूर्यम्) = प्रकाशक प्रभु को (उपब्रेव) = उपासना में स्थित होकर स्तुत करता हूँ। प्रभु ही तो इन द्युलोक व पृथिवीलोक के अन्तों को अपनी रश्मियों से अवभासित कर रहे हैं। [२] हे प्रभो! आप (सदा) = हमेशा (अस्मान्) = हमें (भोजेषु) = पालन करनेवाले पुरुषों में (अभि उत चर) = उत्कृष्ट गतिवाला करिये, उन्नत करिये। हम भोजों में उत्कृष्ट भोज बनें, खूब दानशील हों।
भावार्थ
भावार्थ- हम द्यावापृथिवी में सर्वत्र प्रभु के प्रकाश को देखते हुए प्रभु का गुणगान करें। प्रभु हमें उत्कृष्ट दानशील बनायें।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal