ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
म॒हान्ता॑ मि॒त्रावरु॑णा स॒म्राजा॑ दे॒वावसु॑रा । ऋ॒तावा॑नावृ॒तमा घो॑षतो बृ॒हत् ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान्ता॑ । मि॒त्रावरु॑णा । स॒म्ऽराजा॑ । दे॒वौ । असु॑रा । ऋ॒तऽवा॑नौ । ऋ॒तम् । आ । घो॒ष॒तः॒ । बृ॒हत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
महान्ता मित्रावरुणा सम्राजा देवावसुरा । ऋतावानावृतमा घोषतो बृहत् ॥
स्वर रहित पद पाठमहान्ता । मित्रावरुणा । सम्ऽराजा । देवौ । असुरा । ऋतऽवानौ । ऋतम् । आ । घोषतः । बृहत् ॥ ८.२५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The great Mitra and Varuna, mighty refulgent rulers, are generous and divine, commanding the vision and vitality of spiritual life and vigour. Dedicated to the law of eternity, in their life they define and proclaim that universal law in the living form of yajnic action.
मराठी (1)
भावार्थ
ब्राह्मण, क्षत्रिय यांनी सदैव ईश्वरीय नियम देशदेशान्तरी पसरवावे ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः कीदृशौ भवेताम् ।
पदार्थः
पुनः । महान्ता=महान्तौ । सम्राजा=सम्राजौ । देवौ । असुरा=असुरौ=बलवन्तौ=दुष्टनिग्राहकौ च । ऋतावानौ= सत्यनियमपरायणौ । ईदृशौ मित्रावरुणौ । बृहत्=महत् । ऋतम्=ईश्वरीयनियमम् । आघोषतः=प्रकाशतः ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः वे कैसे हों ।
पदार्थ
(महान्ता) जो सब काम में महान् (सम्राजा) जगत् के शासक (देवौ) दिव्यगुणसम्पन्न (असुरा) परमबलवान् (ऋतावानौ) सद्धर्म पर चलनेवाले (मित्रावरुणा) मित्र और वरुण हैं, ये दोनों (ऋतम्) ईश्वरीय सत्य नियम को (बृहत्) बृहत् रूप से (आघोषतः) प्रकाशित करें ॥४ ॥
भावार्थ
वे सदा ईश्वरीय नियमों को देश-२ में फैलाया करें ॥४ ॥
विषय
उत्तम माता पिता से रक्षा की प्रार्थना ।
भावार्थ
वे दोनों! ( महान्ता ) गुणों में महान्, ( सम्राजा ) अच्छी प्रकार दीप्तिमान्, तेजस्वी, (देवा) दानशील ( असुरा ) बलवान्, शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाले, ( ऋतावानौ ) सत्य ज्ञान से युक्त, दोनों ( बृहत् ऋतम् आ घोषतः ) बड़े भारी सत्य ज्ञान, वेद और न्याय की घोषणा किया करें, उसका पठन पाठन और उपदेश किया करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
सम्राजा देवौ असुरा
पदार्थ
[१] (मित्रावरुणा) = स्नेह व निर्देषता के भाव (महान्ता) = महान् हैं, पूज्य हैं। महिमावाले हैं, (सम्राजा) = ये जीवन को सम्यक् राजमान [दीप्त] बनाते हैं। (देवौ) = प्रकाशमय हैं और (असुरा) = प्राणशक्ति का संचार करनेवाले हैं। द्वेष प्राणशक्ति के ह्रास का कारण होता है। [२] (ऋतावानौ) = ऋत का रक्षण करनेवाले ये मित्र और वरुण (बृहत् ऋतम्) = वृद्धि के कारणभूत ऋत को (आघोषतः) = हमारे जीवन में उच्चारित करते हैं। स्नेह व निद्वेषता के भावों से हमारा जीवन ऋतमय यज्ञमय बनता है।
भावार्थ
भावार्थ-स्नेह व निर्देषता के भाव हमारे जीवनों को यज्ञमय बनाते हैं। इन यज्ञों के द्वारा ये हमें दीप्त, दिव्यगुणयुक्त व प्राणशक्ति सम्पन्न करते हैं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal