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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 12
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    अघ्न॑ते॒ विष्ण॑वे व॒यमरि॑ष्यन्तः सु॒दान॑वे । श्रु॒धि स्व॑यावन्त्सिन्धो पू॒र्वचि॑त्तये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अघ्न॑ते । विष्ण॑वे । व॒यम् । अरि॑ष्यन्तः । सु॒ऽदान॑वे । श्रु॒धि । स्व॒ऽया॒व॒न् । सि॒न्धो॒ इति॑ । पू॒र्वऽचि॑त्तये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अघ्नते विष्णवे वयमरिष्यन्तः सुदानवे । श्रुधि स्वयावन्त्सिन्धो पूर्वचित्तये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अघ्नते । विष्णवे । वयम् । अरिष्यन्तः । सुऽदानवे । श्रुधि । स्वऽयावन् । सिन्धो इति । पूर्वऽचित्तये ॥ ८.२५.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let us all, unhurt and unviolated, work for the unassailable and generous Vishnu, universal ruling spirit of the nation of humanity, who knows everything in advance. O lord of self-judgement and independent action, generous as the sea, pray listen to our prayer and protect us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजा ज्या उपायांमुळे निरुपद्रवी बनेल ती ती आवश्यक कर्तव्ये असतात व स्वस्थ अबाधित प्रजेनेही रक्षकांना प्रसन्न ठेवावे. ॥१२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    सभाध्यक्षकर्त्तव्यमाह ।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! वयं सर्वे । अरिष्यन्तः=केनापि अबाधिताः सन्तः । अघ्नते=अहिंसकाय । सुदानवे=शोभनदानाय । विष्णवे=सभाध्यक्षाय । सेवामहे । हे स्वयावन्=स्वयमेवासहायः सन् याति गच्छतीति स्वयावान् । हे सिन्धो=स्यन्दनशील दयालो ! पूर्वचित्तये=पूर्णज्ञानाय । श्रुधि=अस्माकं प्रार्थनां शृणु ॥१२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    सभाध्यक्ष का कर्त्तव्य कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! (वयम्+अरिष्यन्तः) हम सब किसी से बाधित न होकर (अघ्नते) अहिंसक (सुदानवे) शोभनदाता (विष्णवे) सभाध्यक्ष और परमात्मा की सेवा करें (स्वयावन्) हे स्वयं इतस्ततः रक्षा के लिये जानेवाले (सिन्धो) हे परमदयालो ! सभाध्यक्ष और भगवन् आप दोनों (पूर्वचित्तये) पूर्ण ज्ञान के लिये (श्रुधि) हमारी प्रार्थना को सुनिये ॥१२ ॥

    भावार्थ

    प्रजागण जिन-२ उपायों से निरुपद्रव हों, वे-२ अवश्य कर्त्तव्य हैं और स्वस्थ अबाधित प्रजाएँ भी रक्षकों को प्रसन्न रक्खें ॥१२ ॥

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    विषय

    उत्तम पुरुषों के कर्त्तव्य। विश्पति राजा के प्रभु और सूर्यवत् कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( वयम् ) हम लोग ( अरिष्यन्तः ) किसी की हिंसा न करते हुए, स्वयं भी पीड़ित न होते हुए, ( अघ्नते ) अहिंसक (सु-दानवे ) उत्तम दानशील, ( पूर्व-चित्तये ) पूर्ण ज्ञानी और सबसे पूर्व कर्मकर्त्ता, पूर्ण संसार के बनाने वाले परमेश्वर की स्तुति करें। हे ( स्व-यावन् ) अपने ही सामर्थ्य से संसार को चलाने हारे ! हे ( सिन्धो ) समुद्रवत् गम्भीर, आनन्द रस के सागर ! तू ( श्रुधि ) हमारी प्रार्थना को श्रवण कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अरिष्यन्तः [अहिंसा धर्म का पालन करनेवाले ]

    पदार्थ

    [१] (वयम्) = हम (अरिष्यन्तः) = किसी की हिंसा न करते हुए (अध्नते) = उस अहिंसक, (विष्णवे) = सर्वव्यापक व सर्वाधार, सुदानवे यज्ञय दानशील पूर्वचित्तये पूर्ण ज्ञानी प्रभु के लिये हों। उस प्रभु का स्तवन करें। प्रभु के स्तवन का सर्वोत्तम प्रकार यही है कि हम अहिंसक बनें, किसी का बुरा न करें। [२] हे (स्वयावन्) = अपने सामर्थ्य से सब गतियों को करनेवाले, (सिन्धो) = आनन्द रस के सागर अथवा स्तोताओं के प्रति सब धनों को प्रवाहित करनेवाले [ स्यन्दनशील] प्रभो ! (श्रुधि) = आप हमारी प्रार्थना को सुनिये। प्रभु से हमारी प्रार्थना तभी सुनी जायेगी जब कि हम भी 'स्वयावा व सिन्धु' बनने का प्रयत्न करेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अहिंसक बनकर अहिंसक प्रभु के सच्चे स्तोता बनें। अपना कार्य अपने आप करनेवाले व धनों का दान करनेवाले बनें जिससे हमारी प्रार्थना सुनी जाये।

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