ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 20
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
वचो॑ दी॒र्घप्र॑सद्म॒नीशे॒ वाज॑स्य॒ गोम॑तः । ईशे॒ हि पि॒त्वो॑ऽवि॒षस्य॑ दा॒वने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवचः॑ । दी॒र्घऽप्र॑सद्मनि । ईशे॑ । वाज॑स्य । गोऽम॑तः । ईशे॑ । हि । पि॒त्वः॑ । अ॒वि॒षस्य॑ । दा॒वने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वचो दीर्घप्रसद्मनीशे वाजस्य गोमतः । ईशे हि पित्वोऽविषस्य दावने ॥
स्वर रहित पद पाठवचः । दीर्घऽप्रसद्मनि । ईशे । वाजस्य । गोऽमतः । ईशे । हि । पित्वः । अविषस्य । दावने ॥ ८.२५.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Mitra, the Brahmana, rules the Word in the vast house of yajna, and the yajamana who is master of the wealth of lands and cows and prospers in food, energy and social achievement, as he also, rules over the food which is pure and poisonless and which is meant for gifting away.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व प्रकारच्या धनाचे स्वामी असतील तर तेच ब्राह्मण पदवाच्य असतात. ॥२०॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तस्यैव गुणान् दर्शयति ।
पदार्थः
हे विद्वन् ! यो मित्रो ब्राह्मणप्रतिनिधिः । दीर्घप्रसद्मनि=विस्तृते भवने तिष्ठति । यश्च । गोमतः=गवादिपशुयुक्तस्य । वाजस्यान्नस्य । ईशे=ईष्टे । दावने=दानाय । अविषस्य=विषरहितस्य प्रीतिकारिणः । पित्वः=पितोरन्नस्य । ईशे+हि=ईष्टे एव ॥२० ॥
हिन्दी (4)
विषय
पुनः उसी के गुण दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे विद्वन् ! जो ब्राह्मणप्रतिनिधि मित्र (दीर्घप्रसद्मनि) विस्तृत भवन में रहते हैं (यश्च) और जो (गोमतः+वाजस्य) गवादि पशुयुक्त सम्पत्तियों के ऊपर (ईष्टे) शासन करते हैं और (दावने) दान के लिये (अविषस्य) विषरहित प्रीतिकारी (पित्वः) अन्नों के ऊपर अधिकार रखते हैं, वे प्रशंसनीय हैं ॥२० ॥
भावार्थ
जो सर्व प्रकार के धनों के स्वामी हों, वे ही ब्राह्मणपदवाच्य हैं ॥२० ॥
विषय
विश्वपति वरुण, प्रकाशस्वरूप ईश्वर
भावार्थ
जो ( गोमतः वाजस्य ) गौ, भूमि, वाणी और इन्द्रियों से युक्त ( वाजस्य ) ऐश्वर्य, ज्ञान और विभूति का ( ईशे ) स्वामी है और जो ( अविषस्य ) विषरहित ( पित्वः ) अन्न के ( दावने ) देने में ( ईशे हि ) निश्चय से सबका स्वामी है उस ( दीर्घ-प्रसद्मनि ) महा-भवन के समान सब के शरणदाता वा महाभवनवत् विश्व के स्वामी के विषय में ( वचः ) स्तुति वाणी का प्रयोग किया करो। ( २ ) इसी प्रकार जो राजा बड़े भवन में रहता, भूमि पशु सम्पदा स्वामी, और शुद्ध अन्न को देने में समर्थ है उसी से प्रजा शरण की प्रार्थना करे। इति चतुर्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु रूप महान् बन
पदार्थ
[१] (दीर्घप्रसद्मनि) इस महान् प्रकृष्ट भवनभूत, सब के शरण दाता प्रभु के विषय में (वचः) = स्तुति - वचनों का उच्चारण कर। ये प्रभु ही (गोमतः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले व प्रशस्त ज्ञान की वाणियोंवाले बल को (ईशे) = ईश हैं। प्रभु ही प्रशस्त इन्द्रियों को, ज्ञान को व बल को देते हैं । [२] वे प्रभु (हि) = ही (अविषस्य) = सब प्रकार के विषैले प्रभावों से रहित (पित्वः) = अन्न के (दावने) = देने में (ईशे) = ईश हैं। प्रभु ही अमृततुल्य पोषक अन्नों को भी प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही महान् भवन हैं, सब की शरण हैं। ये प्रभु ही प्रशस्त इन्द्रियों को, ज्ञान व शक्ति को तथा निर्विघ्न अन्न को देने में समर्थ हैं।
विषय
पुनः उसी के गुण दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे विद्वन् ! जो ब्राह्मणप्रतिनिधि मित्र (दीर्घप्रसद्मनि) विस्तृत भवन में रहते हैं (वचः) और जो (गोमतः+वाजस्य) गवादि पशुयुक्त सम्पत्तियों के ऊपर (ईष्टे) शासन करते हैं और (दावने) दान के लिये (अविषस्य) विषरहित प्रीतिकारी (पित्वः) अन्नों के ऊपर अधिकार रखते हैं, वे प्रशंसनीय हैं ॥२० ॥
भावार्थ
जो सर्व प्रकार के धनों के स्वामी हों, वे ही ब्राह्मणपदवाच्य हैं ॥२० ॥
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