ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 6
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
सं या दानू॑नि ये॒मथु॑र्दि॒व्याः पार्थि॑वी॒रिष॑: । नभ॑स्वती॒रा वां॑ चरन्तु वृ॒ष्टय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । या । दानू॑नि । ये॒मथुः॑ । दि॒व्याः । पार्थि॑वीः । इषः॑ । नभ॑स्वतीः । आ । वा॒म् । च॒र॒न्तु॒ । वृ॒ष्टयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं या दानूनि येमथुर्दिव्याः पार्थिवीरिष: । नभस्वतीरा वां चरन्तु वृष्टय: ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । या । दानूनि । येमथुः । दिव्याः । पार्थिवीः । इषः । नभस्वतीः । आ । वाम् । चरन्तु । वृष्टयः ॥ ८.२५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
You hold, control, expand and direct the generous gifts of earthly and heavenly foods, energies and nourishments, so we pray that your showers laden with vapours from the sky may serve you, rain down and bless us.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाच्या सुखासाठी ज्या ज्या वस्तूंची आवश्यकता असते त्यांचा संग्रह करावा. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
तयोर्गुणान् दर्शयति ।
पदार्थः
हे मित्रावरुणौ ! या=यौ युवाम् । दानूनि=दानानि । संयेमथुः=संगृह्णीथः । दिव्याः=दिविस्थाः । पार्थिवीः=भौमाश्च । इषः=अन्नानि । सर्वाणि संचिनुथः । नभस्वतीः=आकाशस्थाः । वृषयोऽपि समये समये । वाम्=युवाम् । आचरन्तु ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
उनके गुणों को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे मित्र और वरुण ! (या) जो आप दोनों (दानूनि+संयेमथुः) प्रजाओं को सुखी रखने के लिये बहुत से देव पदार्थों को संग्रह करके रखते हैं । यहाँ तक कि (दिव्याः) द्युलोकस्थ (पार्थिवीः) पार्थिव पृथिवीसम्बन्धी (इषः) धनों को इकट्ठा करते हैं । इस प्रकार (नभस्वतीः) आकाशस्थ (वृषथः) वृष्टियाँ भी (वाम्+आचरन्तु) आपकी सहायता करें ॥६ ॥
भावार्थ
मनुष्य के सुख के लिये जिन-२ वस्तुओं की आवश्यकता हो, वे सब ही संग्रहणीय हैं ॥६ ॥
विषय
उत्तम माता पिता से रक्षा की प्रार्थना ।
भावार्थ
( या ) जो आप दोनों ( दानूनि ) दान योग्य वीर्यों, धनों का ( सं येमथुः ) संयमपूर्वक रक्षा करते रहे उन ( वां ) आप दोनों को ( नभस्वतीः ) आकाश की, ( दिव्या ) अन्तरिक्ष की ( वृष्टयः ) वृष्टियां और ( पार्थिवीः इषः ) पृथिवी पर उत्पन्न होने वाले अन्न ( आचरन्तु ) प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
सब धन, दिव्य व पार्थिव प्रेरणायें, आनन्द की वृष्टि
पदार्थ
[१] (या) = जो आप हे मित्र और वरुण ! (दानूनि) = सब देय धनों को (संयेमथुः) = हमारे लिये देते हो, उन (वाम्) = आपको (दिव्या:) = मस्तिष्करूप द्युलोक सम्बन्धी तथा (पार्थिवी:) = शरीररूप पृथिवी सम्बन्धी (इषः) = प्रेरणायें आचरन्तु प्राप्त हों। अर्थात् स्नेह व निर्देषता के होने पर हृदयस्थ के द्वारा मस्तिष्क व शरीर को ठीक बनाये रखने के लिये प्रेरणायें प्राप्त होती हैं। [२] इन प्रेरणाओं को प्राप्त करने पर और तदनुसार जीवन को बनाने पर (नभस्वतीः) = धर्ममेघ समाधि में मस्तिष्करूप आकाश से होनेवाली (वृष्टयः) = आनन्द की वर्षायें आचरन्तु हमें सर्वथा प्राप्त हों।
भावार्थ
भावार्थ-स्नेह व निर्देषता से सब दैवी सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। मस्तिष्क व शरीर सम्बन्धी प्रेरणायें हृदयस्थ प्रभु से हमारे लिये दी जाती हैं। और अन्ततः धर्ममेघ समाधि में पहुँचकर हम आनन्द की वृष्टियों का अनुभव करते हैं।
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