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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 23
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    ता मे॒ अश्व्या॑नां॒ हरी॑णां नि॒तोश॑ना । उ॒तो नु कृत्व्या॑नां नृ॒वाह॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । मे॒ । अश्व्या॑नाम् । हरी॑णाम् । नि॒ऽतोश॑ना । उ॒तो इति॑ । नु । कृत्व्या॑नाम् । नृ॒ऽवाह॑सा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता मे अश्व्यानां हरीणां नितोशना । उतो नु कृत्व्यानां नृवाहसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता । मे । अश्व्यानाम् । हरीणाम् । निऽतोशना । उतो इति । नु । कृत्व्यानाम् । नृऽवाहसा ॥ ८.२५.२३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 23
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Among the gifts of dynamic achievables, let the mind, senses and knowledge be destroyers of darkness and suffering, and among the organs of will and action, let the human body be the chariot of passage to salvation across the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आमची इंद्रिये ईश्वरकृपेने विषय विमुख व्हावीत व सदैव माणसांना सुखी करणारी असावीत. ॥२३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    इन्द्रियाणि कीदृशानि भवेयुरिति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हरीणाम्=हर्तॄणाम् । अश्व्यानाम्=अश्वसमूहानां मध्ये । नितोशना=नितोशनौ=शत्रुविनाशकौ । ता=तौ । मम ज्ञानकर्मेन्द्रियाश्वौ । भवेताम् । उतो+नु=उतापि च । कृत्व्यानाम्=कर्मणि कुशलानाम् । मध्ये । नृवाहसा=नृवाहसौ=मनुष्याणां वोढारौ । भवेताम् ॥२३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इन्द्रिय कैसे हों, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (मे) मेरे (हरीणाम्) हरणशील (अश्व्यानाम्) अश्वसमूहों के मध्य (नितोशना) शत्रुविनाशक ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय होवें (उतो+नु) और भी (कृत्व्यानाम्) कर्म करने में कुशलों के मध्य (नृवाहसा) मनुष्यों के सुख पहुँचानेवाले हों ॥२३ ॥

    भावार्थ

    हमारे इन्द्रियगण उसकी कृपा से विषयविमुख हों और सदा मनुष्यों में सुखवाहक हों ॥२३ ॥

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    विषय

    सत्पुरुषों से प्रार्थना।

    भावार्थ

    ( ता ) वे दोनों प्रधान स्त्री पुरुष (मे) मुझ राजा के अधीन ( अश्व्यानां हरीणां ) अश्वारोही जनों के बीच ( नि-तोशना ) शत्रुओं को नाश करने वाले, ( उत नु ) और ( कृत्व्यानां ) कर्मकुशल पुरुषों के बीच में ( नृ-वाहसा ) मनुष्यों को सन्मार्ग में लेजाने वाले हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    इन्द्रियाश्व कैसे ?

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में उत्तम शरीररथ का वर्णन किया था। प्रस्तुत मन्त्र में उत्तम इन्द्रियाश्वों का उल्लेख करते हैं, (मे) = मेरे (ता) = वे ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप (अश्व हरीणाम्) = हरित वर्ण दीप्त [हरि= A ray = of light] (अश्व्यानाम्) = अश्व संघों के बीच में (नितोशना) = शत्रुओं का बाधन करनेवाले हैं। ये मेरे इन्द्रियाश्व काम रूप शत्रु से आक्रान्त नहीं होते। [२] (उत) = और (उ) = निश्चय से (नु) = अब ये (अश्व कृत्व्यानाम्) = कर्त्तव्य कर्मों के करने में कुशल अश्वों में कुशल होते हुए शत्रुओं के बाधक होते हैं। ये (नृवाहसा) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोगों को लक्ष्य - स्थान पर ले जानेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे इन्द्रियाश्व काम आदि शत्रुओं के बाधक, कर्त्तव्य कर्मों को करने में कुशल व नरों को लक्ष्य स्थान पर ले जानेवाले हों।

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