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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 14
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    उ॒त न॒: सिन्धु॑र॒पां तन्म॒रुत॒स्तद॒श्विना॑ । इन्द्रो॒ विष्णु॑र्मी॒ढ्वांस॑: स॒जोष॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । सिन्धुः॑ । अ॒पाम् । तत् । म॒रुतः॑ । तत् । अ॒श्विना॑ । इन्द्रः॑ । विष्णुः॑ । मी॒ढ्वांसः॑ । स॒ऽजोष॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत न: सिन्धुरपां तन्मरुतस्तदश्विना । इन्द्रो विष्णुर्मीढ्वांस: सजोषसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । नः । सिन्धुः । अपाम् । तत् । मरुतः । तत् । अश्विना । इन्द्रः । विष्णुः । मीढ्वांसः । सऽजोषसः ॥ ८.२५.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And that wealth and security, we pray, may the ocean of waters and vapours, Maruts, winds and the stormy troops of the nation, Ashvins, complementary forces of nature and humanity, sun and moon, and Indra and Vishnu, universal energy and omnipresent divinity, all loving, cooperative and generous, protect and promote for us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चेतन व अचेतनाने जगाचा निर्वाह होत आहे. त्यासाठी या दोन्हींपासून बुद्धिमानांनी लाभ घ्यावा. ॥१४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    आशीर्वादं याचते ।

    पदार्थः

    उतापि च । नोऽस्माकं तद्धनम् । अपां सिन्धुर्मेघः । मरुतः । अश्विना=अश्विनौ । इन्द्रो विष्णुश्च । एते । मीढ्वांसः=सेक्तारः । सजोषसः=संगताः सन्तः । पान्तु ॥१४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    आशीर्वाद की याचना करते हैं ।

    पदार्थ

    (उत) और (अपां+सिन्धुः) जलों का सागर मेघ (मरुतः) वायु और सेनानायक (अश्विना) सद्वैद्य और सूर्य्य, चन्द्र (इन्द्रः+विष्णुः) राजा और सभाध्यक्ष विद्युत् और द्युलोकस्थ पदार्थ ये सब (सजोषसः) मिलकर (नः+तत्+तत्) हम लोगों के उस-२ अभ्युदय को बचावें, बढ़ावें और कृपादृष्टि से देखें और (मीढ्वांसः) सुखों के वर्षा करनेवाले होवें ॥१४ ॥

    भावार्थ

    चेतन और अचेतन दोनों से जगत् का निर्वाह हो रहा है, अतः इन दोनों से बुद्धिमान् लाभ उठावें ॥१४ ॥

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    विषय

    उत्तम पुरुषों के कर्त्तव्य। विश्पति राजा के प्रभु और सूर्यवत् कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( अपां सिन्धुः ) जलों का बहने वाला प्रवाह, ( मरुतः ) शत्रुहन्ता बलवान् पुरुष और वैश्यगण, ( अश्विना ) अश्वारोही योद्धा और रथी, सारथी, ( इन्द्रः ) सेनापति, राजा, ( विष्णुः ) व्यापक सामर्थ्यवान् वा विविध विद्याओं में निष्णात ये सब (मीढ्वांसः ) प्रजापर सुखों की वर्षा करने वाले और ( स-जोषसः ) एक समान सब से प्रीति रखने हारे होकर ( नः तत् तत् ) हमारे उन २ धनों की रक्षा करें और दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'स्वास्थ्य व प्रसाद' रूप धन का रक्षण

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (नः) = हमारे (तत्) = उस धन को (अपां सिन्धुः) = शक्ति कणों को हमारे में प्रवाहित करनेवाली देवता सुरक्षित करे। (तत्) = उस धन को (मरुतः) = प्राण तथा (अश्विना) = सूर्य और चन्द्र [दायां व बायां स्वर] सुरक्षित करें। स्पष्ट है कि यह धन स्वास्थ्य का धन है। इसे ये सब देव सुरक्षित करें। [२] (इन्द्रः) = जितेन्द्रियता की देवता तथा (विष्णुः) = व्यापकता, उदारता का भाव उस धन को सुरक्षित करे। ये सब देव (सजोषसः) = समान रूप से प्रीतिवाले होते हुए हमारे लिये (मीढ्वांसः) = सुखों का सेचन करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम शक्तिकणों का रक्षण करें, प्राणसाधना में प्रवृत्त हों, दायें व बायें नासा के स्वर को [सूर्य-चन्द्र] ठीक रखें। जितेन्द्रिय व उदार हृदय बनें। ये सब देव हमारे स्वास्थ्य व प्रसाद रूप धन का रक्षण करेंगे।

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