ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 16
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
अ॒यमेक॑ इ॒त्था पु॒रूरु च॑ष्टे॒ वि वि॒श्पति॑: । तस्य॑ व्र॒तान्यनु॑ वश्चरामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । एकः॑ । इ॒त्था । पु॒रु । उ॒रु । च॒ष्टे॒ । वि । वि॒श्पतिः॑ । तस्य॑ । व्र॒तानि॑ । अनु॑ । वः॒ । च॒रा॒म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमेक इत्था पुरूरु चष्टे वि विश्पति: । तस्य व्रतान्यनु वश्चरामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । एकः । इत्था । पुरु । उरु । चष्टे । वि । विश्पतिः । तस्य । व्रतानि । अनु । वः । चरामसि ॥ ८.२५.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O people of the world, this one Integrity of the two, Mitra and Varuna, lord ruler and promoter of the people, thus watches the vast and various wealths of the world for protection, and for your sake we observe and follow his rules and laws of discipline.
मराठी (1)
भावार्थ
राज्याच्या नियमांना सर्वांनी एकमताने पालन करावे व करवावे. ॥१६॥
संस्कृत (1)
विषयः
कीदृशेन क्षत्रियेण भाव्यमिति दर्शयति ।
पदार्थः
विश्पतिः=विशां जनानां पतिः । अयं वरुणः । एक एव । पुरु=बहु । उरु च । धनम् । इत्था=इत्थम् । विचष्टे=विपश्यति । हे मनुष्याः ! वः=युष्माकं कल्याणाय । तस्य व्रतानि । वयम् । अनुचरामसि=अनुचरामः ॥१६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
क्षत्रिय को कैसा होना चाहिये, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
वे वरुण (विश्पतिः) सम्पूर्ण जनों के अधिपति और (एक+एव) एक ही (बहु+उरु+च) बहुत और विस्तृत धनों को (इत्था+विचष्टे) इस प्रकार देखते हैं (तस्य+व्रतानि) उनके नियमों को (वः) आप लोग और हम सब (अनुचरामसि) पालन करें ॥१६ ॥
भावार्थ
राज्य की ओर से स्थापित नियमों को सब ही एकमत होकर पालें और पलवावें ॥१६ ॥
विषय
विश्पति राजा के प्रभु और सूर्यवत् कर्त्तव्य।
भावार्थ
( अयम् एकः ) यह एक ( पुरुः ) पालक, सबकी अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला, ( विश्पतिः ) प्रजाओं का पालक हो। ( इत्था ) इस प्रकार सत्य न्याय को वह ( वः वि चष्टे उ) विविध या विशेष प्रकार से तुम सब के व्यवहारों को सूर्यवत् देखता है। ( तस्य व्रतानि ) इस प्रजापति के उपदिष्ट और कृत कर्मों का हम ( अनु चरामसि ) अनुकरण करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
विश्पतिः
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह प्रभु (एकः) = अकेला ही (इत्था) = सचमुच (पुरू) = [पुरूणि] बहुत (उरु) = [उरूणि] विशाल लोकों को (विचष्टे) = विशेषरूप से प्रकाशित करता है। (विश्पतिः) = वही सब प्रजाओं का स्वामी है, वही सब का रक्षक है। [२] (तस्य व्रतानि) = उस प्रभु के व्रतों के (अनु चरामसि) = अनुकूल आचरण करते हैं। (वः) = तुम सब के हित के लिये प्रभु के व्रतों का हम पालन करते हैं। 'सबका पालन करना, व सब का रक्षण' ही प्रभु का सर्वमहान् व्रत है। इस व्रत का पालन ही प्रभु प्राप्ति का उपाय है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु अकेले ही सब विशाल लोकों का प्रकाशन कर रहे हैं। प्रभु ही सब प्रजाओं के रक्षक हैं। हम भी प्रभु के व्रतों का अनुचरण करते हुए सर्वहित में प्रवृत्त होते हैं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal