ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 7
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
अधि॒ या बृ॑ह॒तो दि॒वो॒३॒॑ऽभि यू॒थेव॒ पश्य॑तः । ऋ॒तावा॑ना स॒म्राजा॒ नम॑से हि॒ता ॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑ । या । बृ॒ह॒तः । दि॒वः । अ॒भि । यू॒थाऽइ॑व । पश्य॑तः । ऋ॒तऽवा॑ना । स॒म्ऽराजा॑ । नम॑से । हि॒ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधि या बृहतो दिवो३ऽभि यूथेव पश्यतः । ऋतावाना सम्राजा नमसे हिता ॥
स्वर रहित पद पाठअधि । या । बृहतः । दिवः । अभि । यूथाऽइव । पश्यतः । ऋतऽवाना । सम्ऽराजा । नमसे । हिता ॥ ८.२५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
You who observe the life below on earth from the vast skies, life like hosts of people and herds of cattle, then you, brilliant generous rulers who maintain the laws of eternity, are invoked and invited for the presentation of homage and yajnic service.
मराठी (1)
भावार्थ
मित्र व वरुण हे दोघे महाप्रतिनिधी आहेत, त्यामुळे ते उच्च व उत्तम सिंहासनावर बसतात व इतर सिंहासनाखाली बसतात. यासाठी मंत्रात म्हटलेले आहे की, ते दोघे विद्वानाचे समूह पाहतात. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमर्थमेव दर्शयति ।
पदार्थः
पुनः । यूथा इव=यूथानीव । बृहतः=महतः । दिवः=देवान् । या=यौ । अभि=अभिमुखम् । अधिपश्यतः । यौ । ऋतावाना=ऋतावानौ । सम्राजौ । नमसे=नमस्काराय । हिता=हितौ ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसी अर्थ को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
पुनः (या) जो आप दोनों (बृहतः+दिवः) बहुत-२ और बड़े-२ विद्वानों को (अभि) अपने सम्मुख (यूथा+इव) झुण्ड के झुण्ड (अधिपश्यतः) ऊपर से देखते हैं (ऋतावाना) सत्यमार्ग पर चलनेवाले (सम्राजा) अच्छे शासक (नमसे) नमस्कार के योग्य (हिता) जगत् के हितकारी हैं ॥७ ॥
भावार्थ
जिस कारण मित्र और वरुण दोनों महाप्रतिनिधि हैं, इसलिये वे उच्च और उत्तम सिंहासन के ऊपर बैठते हैं और अन्यान्य सिंहासन के नीचे बैठते हैं, इसलिये मन्त्र में कहा गया है कि वे दोनों ऊपर से झुण्ड के झुण्ड अपने सामने विद्वानों को देखते हैं ॥७ ॥
विषय
उत्तम माता पिता से रक्षा की प्रार्थना।
भावार्थ
( अभि यूथा इव ) जिस प्रकार गौओं के समूहों को उनके पालक जन देखते हैं उसी प्रकार ( या ) जो ( बृहतः दिवः अधि पश्यतः ) बड़े भारी कामनाओं वा अभिलाषाओं को देखते हैं वे दोनों (ऋतावाना) सत्य और धन वाले, ( सम्राजा ) उत्तम दीप्ति से दीप्तिमान् होकर ( नमसे ) अन्न और बल को प्राप्त करने के लिये ( हिता ) परस्पर हिताचरण करें वा स्थिर भाव से रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञ-दीप्ति-नम्रता
पदार्थ
[१] (या) = जो मित्र और वरुण हैं, स्नेह व निर्देषता के भाव हैं, ये (बृहतः दिवः) = महान् दिव्यगुणों को हमारे जीवनों में (अधि पश्यतः) = आधिक्येन देखते हैं। स्नेह व निर्देषता के भाव हमारे में दिव्यगुणों को जन्म देते हैं। इस प्रकार ये दिव्यगुणों का ध्यान करते हैं, (इव) = जैसे पालक लोग (यूथा अभि) = गौओं आदि के झुण्डों को देखते हैं। [२] ये मित्र और वरुण (ऋतावाना) = ऋत का, यज्ञ का रक्षण करनेवाले हैं, (सम्राजा) = हमारे जीवनों को सम्यक् दीप्त करनेवाले हैं। और (नमसे हिता) = नमन के लिये हितकर हैं। अर्थात् स्नेह व निर्देषता के भाव हमारे में अभिमान को नहीं उत्पन्न होने देते।
भावार्थ
भावार्थ-स्नेह व निर्देषता से [क] दिव्यगुणों की उत्पत्ति होती है, [ख] ऋत का रक्षण होता है, [ग] जीवन देदीप्यमान बनता है और [घ] नम्रता व निरभिमानता की स्थापना होती है।
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