ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 15
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
ते हि ष्मा॑ व॒नुषो॒ नरो॒ऽभिमा॑तिं॒ कय॑स्य चित् । ति॒ग्मं न क्षोद॑: प्रति॒घ्नन्ति॒ भूर्ण॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठते । हि । स्म॒ । व॒नुषः॑ । नरः॑ । अ॒भिऽमा॑तिम् । कय॑स्य । चि॒त् । ति॒ग्मम् । न । क्षोदः॑ । प्र॒ति॒ऽघ्नन्ति॑ । भूर्ण॑यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते हि ष्मा वनुषो नरोऽभिमातिं कयस्य चित् । तिग्मं न क्षोद: प्रतिघ्नन्ति भूर्णयः ॥
स्वर रहित पद पाठते । हि । स्म । वनुषः । नरः । अभिऽमातिम् । कयस्य । चित् । तिग्मम् । न । क्षोदः । प्रतिऽघ्नन्ति । भूर्णयः ॥ ८.२५.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
All of them, adorable leaders of life, blazing brilliant and irresistible, counter and shatter any enemy as a mighty flood shatters and washes off the firmest obstacles.
मराठी (1)
भावार्थ
कार्यात नियुक्त असलेल्या मित्र इत्यादींनी आळशी न बनता प्रजेच्या विघ्नांना दूर करावे. ॥१५॥
संस्कृत (1)
विषयः
तेषां गुणान् दर्शयति ।
पदार्थः
वनुषः=संभक्तारः । नरः=नेतारः । ते+हि+स्म=ते वरुणादयः । कयस्य+चित्=कस्यापि=सर्वस्य हि । अभिमातिम्= अभिमानम्=शत्रुताम् । प्रतिघ्नन्ति=निवारयन्ति । न=यथा । भूर्णयः=अतिवेगवन्तः । क्षोदः=क्षोदाः=जलानि । अग्रतः स्थितं वृक्षम् । उन्मूलयन्ति । तद्वत् ॥१५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
उनके गुणों को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(ते+हि+स्म) वे ही मित्र, वरुण और अर्यमा (कयस्य+चित्) सबकी (अभिमातिम्) शत्रुता को (प्रतिघ्नन्ति) निवारण करते हैं, जो (वनुषः) यथार्थ न्याय के विभाग करनेवाले (नरः) नेता हैं (न) और जैसे (भूर्णयः) अतिवेगवान् (क्षोदः) जल (तिग्मम्) अग्रतः स्थित वृक्षादि को उखाड़ डालते हैं ॥१५ ॥
भावार्थ
कार्य में नियुक्त मित्रादि निरालस होकर प्रजा के विघ्नों को दूर किया करें ॥१५ ॥
विषय
उत्तम पुरुषों के कर्त्तव्य। विश्पति राजा के प्रभु और सूर्यवत् कर्त्तव्य।
भावार्थ
( ते हि ) वे ( भूर्णयः ) जगत् के पोषक ( नरः ) नायक पुरुष, ( वनुषः ) शत्रुओं के नाशक और सेवा योग्य जन ( कयस्य चित् अभिमाति ) किसी भी प्रतिद्वन्द्वी के अभिमान को ( तिग्मं क्षोदः न ) तीव्र वेग से जाने वाले जल के समान ( प्रति घ्नन्ति ) विनाश कर सकते हैं। इति त्रयोविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
शत्रु के अभिमान को कुचलना
पदार्थ
[१] (ते) = वे (हि) = ही (ष्मा) = निश्चय से (वनुषः नरः) = प्रभु का सम्भजन करनेवाले, उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्य हैं, जो (कयस्य चित्) = किसी भी शत्रु के (अभिमतिम्) - अभिमान को (प्रतिघ्नन्ति) = विनष्ट कर देते हैं। सब शत्रुओं को वशीभूत करना ही प्रभु का सच्चा सम्भजन है। [२] ये (भूर्णयः) = ठीक प्रकार से पोषण करनेवाले लोग इन 'काम-क्रोध-लोभ' आदि शत्रुओं की सत्ता को इस प्रकार विनष्ट करते हैं, (न) = जैसे (तिग्मं क्षोदः) = तीव्र वेगवाला जल-प्रवाह सामने आये वृक्षों को उखाड़ फेंकता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के सच्चे उपासक उन्नतिशील मनुष्य वही हैं, जो काम-क्रोध-लोभ के वेग को समाप्त करनेवाले होते हैं।
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