ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 13
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
तद्वार्यं॑ वृणीमहे॒ वरि॑ष्ठं गोप॒यत्य॑म् । मि॒त्रो यत्पान्ति॒ वरु॑णो॒ यद॑र्य॒मा ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । वार्य॑म् । वृ॒णी॒म॒हे॒ । वरि॑ष्ठम् । गो॒प॒यत्य॑म् । मि॒त्रः । यत् । पान्ति॑ । वरु॑णः । यत् । अ॒र्य॒मा ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्वार्यं वृणीमहे वरिष्ठं गोपयत्यम् । मित्रो यत्पान्ति वरुणो यदर्यमा ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । वार्यम् । वृणीमहे । वरिष्ठम् । गोपयत्यम् । मित्रः । यत् । पान्ति । वरुणः । यत् । अर्यमा ॥ ८.२५.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
We elect to choose that wealth and protection which is the best and most promotive and which Mitra, Varuna and Aryama, Brahmana, Kshatriya and Vaishya, communities of vision, judgement and determination, and positive creativity, value and secure for us.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यामुळे आपल्यावर व दुसऱ्यावर उपकार होईल व हित होईल ते धन उपार्जनीय आहे. ॥१३॥
संस्कृत (1)
विषयः
कीदृशं धनं संचेतव्यमिति दर्शयति ।
पदार्थः
तद्धनं वयं वृणीमहे । यद् वरिष्ठम्=अतिशयेन वरम् । पुनः । गोपयत्यम्=सर्वेषां पालकम् । पुनर्यद्धनं मित्रो वरुणोऽर्य्यमा च पान्ति ॥१३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
कैसा धन उपार्जनीय है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(तत्+वार्यम्+वृणीमहे) हे मित्र तथा वरुण ! हम सब उस धन की कामना करते हैं, जो (वरिष्ठम्) अतिशय श्रेष्ठ (गोपत्यम्) और सबका पालक हो और (यत्+यत्) जिस-२ धन को (मित्रः+वरुणः+अर्यमा) क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य प्रतिनिधि मित्र, वरुण, अर्यमा (पान्ति) पालते हैं ॥१३ ॥
भावार्थ
जिससे अपना और दूसरों का उपकार और हित हो, वह धन उपार्जनीय है ॥१३ ॥
विषय
उत्तम पुरुषों के कर्त्तव्य। विश्पति राजा के प्रभु और सूर्यवत् कर्त्तव्य।
भावार्थ
( यत् ) जिस धन और बल की ( मित्रः) स्नेहवान्, मृत्यु से रक्षक, ( यत् वरुणः ) जिसकी सबको वरण करने योग्य, सब दुःखों का वारक, और ( अर्थमा) शत्रु वा दुष्टों का नियन्ता पुरुष (पान्ति ) रक्षा करते वा उपभोग करते हैं हम ( तत् ) उस (वार्य ) वरण करने, दुःखों को दूर करने वाले ( वरिष्ठं ) सर्वश्रेष्ठ, (गोपयत्यम् ) सबके पालक धन वा बल की ( वृणीमहे ) याचना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'वार्य, वरिष्ठ, गोपयत्य' धन
पदार्थ
[१] हम (तत्) = उस (वार्यम्) = वरने के योग्य, (वरिष्ठम् उरुत्तर) = विशाल (गोपयत्यम्) = सब के रक्षक धन को (वृणीमहे) = वरते हैं। ऐसा ही धन चाहते हैं, जो सचमुच श्रेष्ठ विशाल व सर्वरक्षक हो। [२] उस धन को हम चाहते हैं (यत्) = जिसे (मित्रः) = सब के साथ स्नेह करनेवाले (वरुणः) = व निर्दोषता की भावनावाले व्यक्ति (पान्ति) = रक्षित करते हैं। उस धन को (यत्) = जिसे (अर्यमा) = काम- क्रोध-लोभ को वश में करनेवाले व्यक्ति सुरक्षित करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हमें वरणीय विशाल सर्वरक्षक धन प्राप्त हो। हम स्नेहवाले निद्वेष व काम-क्रोध आदि को वश में करनेवाले व्यक्तियों से रक्षित धन को प्राप्त करें।
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