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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 19
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अत्रे॑रिव शृणुतं पू॒र्व्यस्तु॑तिं श्या॒वाश्व॑स्य सुन्व॒तो म॑दच्युता । स॒जोष॑सा उ॒षसा॒ सूर्ये॑ण॒ चाश्वि॑ना ति॒रोअ॑ह्न्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्रेः॑ऽइव । शृ॒णु॒त॒म् । पू॒र्व्यऽस्तु॑तिम् । श्या॒वऽअ॑श्वस्य । सु॒न्व॒तः । म॒द॒ऽच्यु॒ता॒ । स॒ऽजोष॑सौ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । च॒ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्रेरिव शृणुतं पूर्व्यस्तुतिं श्यावाश्वस्य सुन्वतो मदच्युता । सजोषसा उषसा सूर्येण चाश्विना तिरोअह्न्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्रेःऽइव । शृणुतम् । पूर्व्यऽस्तुतिम् । श्यावऽअश्वस्य । सुन्वतः । मदऽच्युता । सऽजोषसौ । उषसा । सूर्येण । च । सोमम् । पिबतम् । अश्विना ॥ ८.३५.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 19
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, who humble the arrogance of the proud, just as you listen to the universal adorations of the sage of threefold freedom of body, mind and soul, so pray listen to the appeal and adorations of the scholar of solar energy, and, in unison with the sun and the dawn of every new day, provide for the people’s security for the night at the close of the day, and thus create another new joy for the people.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी आपल्या प्रजेतील पापरोगी इत्यादींच्या करुण प्रार्थनेकडे लक्ष द्यावे. ॥१९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अश्विनौ=पुण्यकृतराजानौ ! युवां खलु । अत्रेरिव=यथा अत्रेः न त्रयो मातापितृभ्रातरो यस्य सोऽत्रिर्मातापितृभ्रातृविहीनोऽनाथः पुरुषः । तस्य स्तुतिं शृणुतम् । तथैव । सुन्वतः=शुभकर्मसु आसक्तस्य । श्यावाश्वस्य श्यावा=मलिना रोगैः पीडिता अश्वा इन्द्रियलक्षणं यस्य स श्यावाश्वः पापरोगपीडितो जनः । तस्य पूर्व्यस्तुतिं करुणापूर्णां स्तुतिम् । शृणुतम् । हे मदच्युता=मदानामानन्दानां च्योतितारौ वर्षितारौ । तिरो अह्न्यम्=अहनि दिवसे तिरोहिते अन्तर्हिते सति रात्रौ । युवाम् । सर्वान् जनान् रक्षतमित्यर्थः ॥१९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अश्विना) हे पुण्यकृत राजन् तथा मन्त्रिदल ! आप दोनों (अत्रेः+इव) जैसे माता पिता भ्राता तीनों से विहीन अनाथ पुरुष की प्रार्थना सुनते हैं, तद्वत् (सुन्वतः) शुभकर्म करते हुए (श्यावाश्वस्य) रोगों के कारण मलिनेन्द्रिय अर्थात् पापरोगी पुरुष की भी (पूर्व्यस्तुतिम्) करुणायुक्त स्तुति को (शृणुतम्) सुनिये । (मदच्युता) हे आनन्दवर्षिता उभयवर्ग ! (तिरो+अह्न्यम्) दिन के अन्तर्हित होने पर रात्रि में सब मनुष्यों की रक्षा कीजिये ॥१९ ॥

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    विषय

    वेद-श्रवण, सन्तानोत्पत्ति, यज्ञ, देहसयंम का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (अश्विना ) रथी सारथीवत् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( अत्रेः इव ) तीनों दुःखों, बन्धनों, आश्रमों से रहित संन्यासी पुरुष के समान ही ( सुन्वतः ) शासन करने वाले (श्यावाश्वस्य) रक्त श्याम अश्वों के स्वामी, राजा वा जितेन्द्रिय, विद्वान् की (पूर्व्य-स्तुतिं) श्रेष्ठ स्तुति या उपदेश को (मद-च्युता) तृप्त या हर्षित होकर ( शृणुतं ) श्रवण करो। (सूर्येण उषसा सजोषसा) सूर्य और उषावत् परस्पर प्रीतियुक्त होकर ( तिरः-अह्नयम्) दिनावसान और दिन प्राप्ति के प्रातःसायं कृत्यों का भी पालन किया करो।

    टिप्पणी

    तिरः सतः इति प्राप्तस्य। निरु०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अन्ति व श्यावाश्व

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (अत्रेः इव) = 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों से ऊपर उठनेवाले की तरह [अ+त्रि] मेरी (पूर्व्यस्तुतिम्) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम स्तुति को (शृणुतम्) = सुनो। प्राणसाधना द्वारा मैं अत्रि बनूँ और प्रभु के उस स्तवन को करूँ जो मेरा पालन व पूरण करे। [२] हे (मदच्युता) = गर्व को विनष्ट करनेवाले प्राणापानो! आप (श्यावाश्वस्य) = गतिशील इन्द्रियाश्वोंवाले इस स्तोता के [श्यैङ्गतौ] (सुन्वतः) = सोम का सम्पादन करते हो। (उषसा सूर्येण च) = उषाकाल व सूर्य के साथ (सजोषसा) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये जाते हुए आप इस सोम को (तिरः अयम्) = तिरोहित रूप में रुधिर में व्याप्तिवाला [अह व्याप्तौ ] करते हो। यह सोम का शरीर में व्यापन ही हमें अत्रि व श्यावाश्व बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- शत्रुओं को गर्व को नष्ट करनेवाले अश्विदेवो ! तुम सोमरस निचोड़ते हुए स्तोता की स्तुति सुनकर उसके पास जाओ और उसके यज्ञ को उत्तम रीति से चलाकर उसे देवों के समान भरपूर ऐश्वर्य प्रदान करो।

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