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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्वा॑भिर्धी॒भिर्भुव॑नेन वाजिना दि॒वा पृ॑थि॒व्याद्रि॑भिः सचा॒भुवा॑ । स॒जोष॑सा उ॒षसा॒ सूर्ये॑ण च॒ सोमं॑ पिबतमश्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑भिः । धी॒भिः । भुव॑नेन । वा॒जि॒ना॒ । दि॒वा । पृ॒थि॒व्या । अद्रि॑ऽभिः । स॒चा॒ऽभुवा॑ । स॒ऽजोष॑सौ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । च॒ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वाभिर्धीभिर्भुवनेन वाजिना दिवा पृथिव्याद्रिभिः सचाभुवा । सजोषसा उषसा सूर्येण च सोमं पिबतमश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वाभिः । धीभिः । भुवनेन । वाजिना । दिवा । पृथिव्या । अद्रिऽभिः । सचाऽभुवा । सऽजोषसौ । उषसा । सूर्येण । च । सोमम् । पिबतम् । अश्विना ॥ ८.३५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Mighty and dynamic Ashvins, complementary powers of humanity, associated with the twin forces of attraction and repulsion of nature and the world, the regions of light in space, the earth, clouds and mountains, and united with the sun and dawn, receive, protect, promote and bring the soma energy and joy for the benefit of humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा व त्याचे मंत्रिमंडळ द्यूलोक इत्यादीचा बुद्धिमत्तापूर्वक लाभ घेतात, ते दिव्य आनंद भोगतात ॥२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे वाजिना=वाजिनौ ज्ञानिनौ । बलिनौ वा । युवाम् । विश्वाभिः धीभिः=प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा । पुनः । भुवनेन=भूतजातेन प्राणिना । दिवा=द्युलोकेन पृथिव्या अद्रिभिः=पर्वतैर्मेघैर्वा । सचाभुवा=सचाभुवौ=सहाविर्भूतौ स्थः । पुनः । उषसा=मार्दवेन सूर्येण तैक्ष्ण्येन च सजोषसा संगतौ स्थः । अतो युवां सोमं पिबतम् ॥२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (वाजिना) हे ज्ञानी या बली (अश्विना) हे राजन् ! तथा अमात्यमण्डल आप (विश्वाभिः) सर्व प्रकार की (धीभिः) बुद्धियों के (सचाभुवा) साथ ही उत्पन्न हुए हैं । एवम् । (भुवनेन) सर्व प्राणियों के (दिवा) द्युलोक के (पृथिव्या) पृथिवी के (अद्रिभिः) पर्वतों या मेघों के साथ आविर्भूत हुए हैं । तथा (उषसा+सूर्येण+च) मृदुता और तीक्ष्णता दोनों से सम्मिलित हैं, अतः आप महान् हैं, इस कारण सोमरस पीवें ॥२ ॥

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    विषय

    ऐश्वर्य प्राप्ति और उन्नत होने के उपदेश।

    भावार्थ

    ( उषसा सूर्येण च ) सूर्य की प्रातःकालिक उषा, और 'सूर्य' के समान (स-जोषसा) समान प्रीसियुक्त होकर हे ( अश्विनौ ) रथी सारथिवत् उत्तम सहयोगी जितेन्द्रिय स्त्रीपुरुषो ! आप दोनों ( वाजिना सचाभुवा ) बल, ज्ञान, ऐश्वर्यादि के स्वामी और एक साथ संगत रहते हुए, ( विश्वाभिः धीभिः) समस्त वाणियों, कर्मों और ज्ञानों से और (भुवनेन) उत्पन्न संसार और ( दिवा पृथिव्या ) सूर्य और पृथिवी और ( अद्रिभिः ) मेघों से उत्पन्न ( सोमं ) ऐश्वर्य, अन्नादि का ( पिबतम् ) उपभोग करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्राणसाधना से 'बुद्धि व शक्ति' की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] उषाकाल में सूर्योदय के समय तक सेवित किये जाते हुए ये प्राणापान सोम का शरीर में रक्षण करें। [२] (विश्वाभिः धीभिः) = सब बुद्धियों के साथ (सचाभुवा) = समवेत होकर रहनेवाले, (वाजिना भुवनेन) = शक्तिशाली शरीररूप लोक के साथ रहनेवाले, (दिवा) = प्रभु मस्तिष्करूप द्युलोक के साथ, (पृथिव्या) = शरीररूप पृथिवी के साथ (अद्रिभिः) = [ adore ] उपासनाओं के साथ समवेत होकर रहनेवाले ये प्राणापान सोम का पान करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना के द्वारा [क] बुद्धि का विकास होता है, [ख] शरीर के सब अंग सबल बनते हैं, [ग] मस्तिष्क व शरीर ठीक रूप से विकसित होते हैं तथा [घ] चित्तवृत्ति की एकाग्रता होकर प्रभु प्रवणता प्राप्त होती है।

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