ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 24
स्वाहा॑कृतस्य तृम्पतं सु॒तस्य॑ देवा॒वन्ध॑सः । आ या॑तमश्वि॒ना ग॑तमव॒स्युर्वा॑म॒हं हु॑वे ध॒त्तं रत्ना॑नि दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्वाहा॑ऽकृतस्य । तृ॒म्प॒त॒म् । सु॒तस्य॑ । दे॒वौ॒ । अन्ध॑सः । आ । या॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् । अ॒व॒स्युः । वा॒म् । अ॒हम् । हु॒वे॒ । ध॒त्तम् । रत्ना॑नि । दा॒शुषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वाहाकृतस्य तृम्पतं सुतस्य देवावन्धसः । आ यातमश्विना गतमवस्युर्वामहं हुवे धत्तं रत्नानि दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठस्वाहाऽकृतस्य । तृम्पतम् । सुतस्य । देवौ । अन्धसः । आ । यातम् । अश्विना । आ । गतम् । अवस्युः । वाम् । अहम् । हुवे । धत्तम् । रत्नानि । दाशुषे ॥ ८.३५.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 24
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, twin and complementary divinities of nature and humanity, come, drink of the soma offered with selfless homage and reverence to your satisfaction. Praying for protection and promotion I call upon you to come and bless the generous yajaka with the jewels of life.
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषांनी सर्वांसाठी केलेल्या सत्कर्मा (यज्ञा) ने तृप्त व्हावे व अशा सत्कर्मात प्रवृत्त प्रजाजनांना उत्साहित करावे. ॥२४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अश्विनौ ! देवौ ! स्वाहाकृतस्य स्वाहाशब्देन पवित्रीकृतस्य सुतस्य शोधितस्य । अन्धसः ओदनस्य । तृम्पतम् ओदनेन तृप्यतम् । अत्र करणे षष्ठी । शेष पूर्ववत् ॥२४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अश्विना) हे अश्विद्वय (देवौ) हे देवो ! आप दोनों (स्वाहाकृतस्य) स्वाहा शब्द से पवित्रीकृत (सुतस्य) शोधित (अन्धसः) ओदन से (तृम्पतम्) तृप्त होवें । शेष पूर्ववत् ॥२४ ॥
विषय
अन्नयज्ञ द्वारा सन्तुष्ट होवो।
भावार्थ
हे ( देवा ) उत्तम विद्वान् दानशील पुरुषो ! आप दोनों, ( स्वाहा-कृतस्य ) उत्तम रीति से आहुति किये वा उत्तम वचनों द्वारा प्रशंसित (सुतस्य) कूट, पीस, छान कर तैयार किये (अन्धसः) अन्न और जीवनप्रद औषधि पदार्थ से (तृम्पतम्) क्षुधा की तृप्ति करो। शेष पूर्ववत्। इति सप्तदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्राणसाधना द्वारा प्रकाश व आनन्द की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (देवा) = जीवन को दिव्यगुणयुक्त प्रकाशमय बनानेवाले प्राणापानो! आप (सुतस्य) = उत्पन्न हुए-हुए तथा (स्वाहाकृतस्य) = शरीर के अन्दर आहुत किये गये (अन्धसः) = सोम के पान से (तृम्पतम्) = तृप्ति का अनुभव करो, सोम को शरीर में ही व्याप्त करके जीवन को आनन्दमय बनाओ। अवशिष्ट मन्त्रभाग २२ मन्त्र पर द्रष्टव्य है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से सोम का शरीर में ही व्यापन होकर प्रकाश व आनन्द का अनुभव होता है। अगले सूक्त में श्यावाश्व ऋषि 'इन्द्र' का आराधन करते हुए कहते हैं-
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal