ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
स्तोमं॑ जुषेथां युव॒शेव॑ क॒न्यनां॒ विश्वे॒ह दे॑वौ॒ सव॒नाव॑ गच्छतम् । स॒जोष॑सा उ॒षसा॒ सूर्ये॑ण॒ चेषं॑ नो वोळ्हमश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठस्तोम॑म् । जु॒षे॒था॒म् । यु॒व॒शाऽइ॑व । क॒न्यना॑म् । विश्वा॑ । इ॒ह । दे॒वौ॒ । सव॑ना । अव॑ । ग॒च्छ॒त॒म् । स॒ऽजोष॑सौ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । च॒ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तोमं जुषेथां युवशेव कन्यनां विश्वेह देवौ सवनाव गच्छतम् । सजोषसा उषसा सूर्येण चेषं नो वोळ्हमश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठस्तोमम् । जुषेथाम् । युवशाऽइव । कन्यनाम् । विश्वा । इह । देवौ । सवना । अव । गच्छतम् । सऽजोषसौ । उषसा । सूर्येण । च । सोमम् । पिबतम् । अश्विना ॥ ८.३५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Divine Ashvins, twin complementarities of nature and humanity, generous brilliancies, listen and cherish our song of adoration as youthful lovers listen to a lovely brilliant maiden’s, come to our sessions, understand our purpose, and united with the dawn and the sun, transmit to us food and energy in plenty here and now.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा व त्याच्या मंत्र्यांनी आपल्या प्रजेच्या आवश्यकता प्रेमाने परिपूर्ण कराव्यात ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अश्विनौ देवौ ! युवां स्तोमं स्तुतिं जुषेथाम् प्रीत्या सेवेथाम् । अत्र दृष्टान्तः युवशा इव=यथा युवानौ (कन्यनां) कन्यानामाह्वानं सेवेते । तद्वत् । व्याख्यातमन्यत् ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अश्विनौ+देवौ) हे राजदेव तथा मन्त्रिमण्डलदेव ! आप दोनों (सोमम्) प्रार्थनाओं को (जुषेथाम्) प्रीतिपूर्वक सेवें । यहाँ दृष्टान्त देते हैं (युवशा+इव) जैसे युवा पुरुष (कन्यनाम्) कन्याओं की बातें सुनते हैं । (इह) इस संसार में इत्यादि पूर्ववत् ॥५ ॥
विषय
उषा-सूर्यवत् उनके कर्तव्य।
भावार्थ
( युवशा इव ) जिस प्रकार उत्तम युवा युवति दोनों (सजोषसा) समान प्रीतियुक्त होकर (कन्यनां स्तोमं जुषतः) कन्याओं वा गृह में विद्यमान मित्रों के स्तुति वचनों के पात्र होते हैं उसी प्रकार हे (अश्विना) दिन रात्रिवत् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों भी ( उषसा सूर्येण च ) कामना युक्त स्त्री से पुरुष और सूर्यवत् तेजस्वी प्रजोत्पादन समर्थ पुरुष से स्त्री (स-जोषसा) समान प्रीतियुक्त होकर (देवौ) उत्तम व्यवहार, एवं कामनावान् दानशील होकर ( इह ) इस संसार से ( विश्वा सवना ) सब सवन, यज्ञ, प्रजाएं तथा ऐश्वर्यों को ( अव गच्छतम् ) प्राप्त करें। ( च ) और (नः ) हमें ( इषं वोढम् ) हमारी इच्छाएं प्राप्त करावें। अथवा—( नः ) हमारे बीच ऐसे पूर्वोक्त स्त्री पुरुष ही ( इषं आवोढम् ) उत्तम कामना को रखकर परस्पर विवाह करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
स्तवन- तेजस्विता
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! आप (स्तोमं जुषेथाम्) = प्रभु के स्तोत्र का सेवन करो तथा (युवशा इव) = युवावस्था में निवास करनेवाले युवकों के समान (कन्यनाम्) = [ कन दीप्तौ] दीप्ति का सेवन करो। शेष पूर्ववत् ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से स्तवन की वृत्ति व दीप्ति [तेजस्विता ] प्राप्त होती है।
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