ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 4
जु॒षेथां॑ य॒ज्ञं बोध॑तं॒ हव॑स्य मे॒ विश्वे॒ह दे॑वौ॒ सव॒नाव॑ गच्छतम् । स॒जोष॑सा उ॒षसा॒ सूर्ये॑ण॒ चेषं॑ नो वोळ्हमश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठजु॒षेथा॑म् । य॒ज्ञम् । बोध॑तम् । हव॑स्य । मे॒ । विश्वा॑ । इ॒ह । दे॒वौ॒ । सव॑ना । अव॑ । ग॒च्छ॒त॒म् । स॒ऽजोष॑सौ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । च॒ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जुषेथां यज्ञं बोधतं हवस्य मे विश्वेह देवौ सवनाव गच्छतम् । सजोषसा उषसा सूर्येण चेषं नो वोळ्हमश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठजुषेथाम् । यज्ञम् । बोधतम् । हवस्य । मे । विश्वा । इह । देवौ । सवना । अव । गच्छतम् । सऽजोषसौ । उषसा । सूर्येण । च । सोमम् । पिबतम् । अश्विना ॥ ८.३५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Divine Ashvins, twin harbingers of nature and humanity, listen to our call, know our purpose, come and join all our sessions of yajnic creation and, equally in tune with the soothing glory of the dawn and blazing intensity of the sun, bring us food and energy here and now.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने आपल्या मंत्रिमंडळासह शुभ कर्मात प्रवृत्त राहावे, त्यामुळे ते सुखी होतात. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अश्विनौ देवौ । यज्ञं जुषेथां प्रीत्या सेवेथाम् । मे मम । हवस्य=हवमाह्वानं बोधतं वित्तम् । इहात्र संसारे । विश्वा=विश्वानि सर्वाणि । सवना=सवनानि यज्ञान् । अवगच्छतं प्राप्नुतम् । इषमन्नञ्च नोऽस्मान् । आवोढं=प्रापयतम् । सिद्धमन्यत् ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अश्विना+देवौ) हे राजदेव ! तथा मन्त्रिदलदेव ! आप सब मिलकर (यज्ञम्) शुभकर्म को (जुषेथाम्) प्रीतिपूर्वक सेवें । (मे) मेरे (हवस्य) आह्वान को (बोधतम्) जानें या प्राप्त करें । आप दोनों (उषसा) मृदुता और (सूर्येण+च) तीक्ष्णता से (सजोषसा) संयुक्त होकर आप (नः) हम लोगों के निकट (इषम्) अन्न (आ+वोढम्) मँगवावें ॥४ ॥
विषय
उषा-सूर्यवत् उनके कर्तव्य।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( यज्ञं ) यज्ञ, आदर-सत्कार, परस्पर सत्संग और दान धर्म का ( जुषेथाम् ) प्रेमपूर्वक सेवन करो। और ( मे हवस्थ ) मेरे उत्तम स्तुतियुक्त आह्वान वा देने योग्य उपदेश का ( बोधतम् ) अच्छी प्रकार ज्ञान करो। आप दोनों ( देवौ ) दानशील और उत्तम कामनायुक्त होकर ( इह ) इस जगत् में ( विश्वा सवना अव गच्छतम् ) समस्त ऐश्वर्यों को प्राप्त करो। आप दोनों ( उषसा सूर्येण च सजोषसा ) उषा और सूर्य के समान प्रीप्ति युक्त होकर (नः) हमारे लिये ( इषं आ वोढम् ) उत्तम अन्न प्राप्त कराओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञ-प्रार्थना-सवन
पदार्थ
[१] (उषसा सूर्येण च सजोषसा) = उषाकाल से सूर्योदय तक प्रीतिपूर्वक सेवन किये जाते हुए (अश्विना) = प्राणापानो (नः) = हमारे लिये (इषं वोढम्) = प्रभु प्रेरणा को प्राप्त कराओ। प्राणसाधना से मन के दोष दूर होकर, उस पवित्र हृदय में ही प्रभु प्रेरणा के सुनने का सम्भव होता है। [२] इस प्रभु प्रेरणा को प्राप्त कराने के द्वारा, हे प्राणापानो! आप (यज्ञं जुषेथाम्) = यज्ञ का सेवन करो । (मे हवस्य बोधते) = मेरी पुकार को जानो, अर्थात् मुझे प्रभु प्रार्थना की वृत्तिवाला बनाओ। मैं नम्रता से प्रभु का आवाहन करनेवाला बनूँ। हे देवौ दिव्य गुणों को विकसित करनेवाले प्राणपानो! आप (इह) = इस जीवन में विश्वा सवना सब निर्माणात्मक कार्यों को (अवगच्छतम्) = जानो, अर्थात् सदा निर्माणात्मक कार्य करनेवाले बनो।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से पवित्रीभूत हृदय में हम प्रभु प्रेरणा को सुनते हैं । उस प्रेरणा के अनुसार यज्ञशील बनते हैं, प्रार्थना की वृत्तिवाले होते हैं और सदा निर्माणात्मक कार्यों को करते हैं।
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