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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 21
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    र॒श्मीँरि॑व यच्छतमध्व॒राँ उप॑ श्या॒वाश्व॑स्य सुन्व॒तो म॑दच्युता । स॒जोष॑सा उ॒षसा॒ सूर्ये॑ण॒ चाश्वि॑ना ति॒रोअ॑ह्न्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    र॒श्मीन्ऽइ॑व । य॒च्छ॒त॒म् । अ॒ध्व॒रान् । उप॑ । श्या॒वऽअ॑श्वस्य । सु॒न्व॒तः । म॒द॒ऽच्यु॒ता॒ । स॒ऽजोष॑सौ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । च॒ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रश्मीँरिव यच्छतमध्वराँ उप श्यावाश्वस्य सुन्वतो मदच्युता । सजोषसा उषसा सूर्येण चाश्विना तिरोअह्न्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रश्मीन्ऽइव । यच्छतम् । अध्वरान् । उप । श्यावऽअश्वस्य । सुन्वतः । मदऽच्युता । सऽजोषसौ । उषसा । सूर्येण । च । सोमम् । पिबतम् । अश्विना ॥ ८.३५.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 21
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins who shatter the pride and arrogance of evil forces, take over the yajnic programmes of the scholar of solar science and promote them like radiations of the sun and steer them by controls in unison with the sun and the dawn to advance them further than the last stage completed till the last day.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी पापी असलेल्या रोग्यांच्या हिंसारहित शुभ कर्माचे रक्षण करावे. ॥२१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे राजानौ ! सुन्वतः श्यावाश्वस्य । अध्वरान् शुभकर्माणि सारहितानि । रश्मीन् इव=अश्वस्य प्रग्रहानिव । यच्छतं धारयतम् । शेषं व्याख्यातम् ॥२१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे राजन् तथा मन्त्रिमण्डल ! आप (सुन्वतः) शुभकर्मों में प्रवृत्त (श्यावाश्वस्य) रोगीजन के (अध्वरान्) हिंसारहित यागों को (रश्मीन्+इव) घोड़े के लगाम जैसे (यच्छतम्) संभालिये । शेष पूर्ववत् • ॥२१ ॥

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    विषय

    वेद-श्रवण, सन्तानोत्पत्ति, यज्ञ, देहसयंम का उपदेश।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! रथी सारथिवत् राजा सचिवादि जनो ! आप दोनों ( मद-च्युता ) हर्षप्रद होकर ( सुन्वतः) सवन, ऐश्वर्य वा शासन करने वाले (श्यावाश्वस्य) बलवान् उत्तम अश्वों वाले पुरुषों और (अध्वरान्) यज्ञों और न विनष्ट होने वाले, प्रबल जनों को ( रश्मीन् इव ) रश्मियों के समान ( उप यच्छतम् ) नियन्त्रित करो। शेष पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    रश्मि-अध्वर

    पदार्थ

    [१] हे प्राणापानो! आप (रश्मीन् इव) = ज्ञान की किरणों की तरह (अध्वरान्) = हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों को (उपयच्छतम्) = हमारे लिये दो अथवा हमारे अन्दर इनका नियमन करो। शेष मन्त्र भाग मन्त्र संख्या १९ पर द्रष्टव्य है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना द्वारा ज्ञानकिरणों का वर्धन होता है और हमारे जीवनों में यज्ञात्मक कर्म चलते हैं।

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