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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 67/ मन्त्र 15
    ऋषिः - मत्स्यः साम्मदो मान्यो वा मैत्रावरुणिर्बहवो वा मत्स्या जालनध्दाः देवता - आदित्याः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अपो॒ षु ण॑ इ॒यं शरु॒रादि॑त्या॒ अप॑ दुर्म॒तिः । अ॒स्मदे॒त्वज॑घ्नुषी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अपो॒ इति॑ । सु । नः॒ । इ॒यम् । शरुः॑ । आदि॑त्याः । अप॑ । दुः॒ऽम॒तिः । अ॒स्मत् । ए॒तु॒ । अज॑घ्नुषी ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपो षु ण इयं शरुरादित्या अप दुर्मतिः । अस्मदेत्वजघ्नुषी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपो इति । सु । नः । इयम् । शरुः । आदित्याः । अप । दुःऽमतिः । अस्मत् । एतु । अजघ्नुषी ॥ ८.६७.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 67; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 53; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Adityas, let this violent force go off from us, let this evil genius too get away from us, leaving us unhurt.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अज्ञान व दारिद्र्य ही दोन महापापे आहेत. त्यांना सदैव यशाशक्ती क्षीण-हीन करा. ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे आदित्याः=सभासदः ! युष्माकं कृपया । इयं शरुः=दुर्भिक्षादिरूपा हिंसिका प्रसितिः । नः=अस्मान् । अजघ्नुषी=अहिंसन्ती सती । अस्मद्=अस्मत्तः । सु=सुष्ठु । अपो+एतु=अपैतु=अपगच्छतु । एवम् दुर्मतिरपि अपगच्छतु ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (आदित्याः) हे सभासदों माननीय पुरुषो ! आप लोगों की कृपा और राज्यप्रबन्ध से (इयम्+शरुः) यह हिंसा करनेवाला दुर्भिक्षादिरूप आपत्तिजाल (नः) हम लोगों को (अजघ्नुषी) न सताते हुए (अस्मद्) हम लोगों से (सु+अपो+एतु) कहीं दूर चला जाए और इसी प्रकार (दुर्मतिः) हमारी दुर्मति भी (अप) यहाँ से कहीं दूर भाग जाए ॥१५ ॥

    भावार्थ

    अज्ञानता और दरिद्रता ये दोनों महापाप हैं, इनको यथाशक्ति सदा क्षीण हीन बनाया करो ॥१५ ॥

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    विषय

    तेजस्वी विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( आदित्याः ) मातृभूमि के हितकारी जनो ! हे विद्वान् तेजस्वी, अखण्ड ब्रह्मोपासक, अखण्ड व्रताचरण करने हारो ! ( इयं शरुः ) यह हिंसाकारी (नः अपो एतु ) हम से दूर हो और ( इयं दुर्मतिः ) यह दुष्ट मति और दुष्ट शस्त्रादि ( अजघ्नुषी ) हमें पीड़ित न करती हुई ( अस्मत् अप एतु ) हम से दूर हो। इति त्रिपञ्चाशतमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मत्स्यः सांमदो मान्यो वा मैत्रावरुणिर्बहवो वा मत्स्या जालनद्धा ऋषयः॥ आदित्या देवताः। छन्दः—१—३, ५, ७, ९, १३—१५, २१ निचृद् गायत्री। ४, १० विराड् गायत्री। ६, ८, ११, १२, १६—२० गायत्री॥

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    विषय

    अंहिसा + सुमति

    पदार्थ

    [१] हे (आदित्याः) = ज्ञानों व गुणों का आदान करनेवाले पुरुषो! (नः) = हमारे से (इयं शरु:) = हिंसा की वृत्ति (उ) = निश्चय से (अप एतु) = दूर हो। हम औरों का हिंसन करनेवाले न बनें [२] (दुर्मतिः) = दुर्बुद्धि भी (अस्मत्) = हमारे से (सु) = अच्छी प्रकार (अप एतु) = दूर हो। (अजघ्नुषी) = दुर्मति हमारा हिंसन करनेवाली न हो।

    भावार्थ

    भावार्थ-आदित्यों के सम्पर्क में हम अहिंसक मनोवृत्तिवाले व सुमतिवाले बनें।

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