ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 67/ मन्त्र 17
ऋषिः - मत्स्यः साम्मदो मान्यो वा मैत्रावरुणिर्बहवो वा मत्स्या जालनध्दाः
देवता - आदित्याः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
शश्व॑न्तं॒ हि प्र॑चेतसः प्रति॒यन्तं॑ चि॒देन॑सः । देवा॑: कृणु॒थ जी॒वसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठशश्व॑न्तम् । हि । प्र॒ऽचे॒त॒सः॒ । प्र॒ति॒ऽयन्त॑म् । चि॒त् । एन॑सः । देवाः॑ । कृ॒णु॒थ । जी॒वसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शश्वन्तं हि प्रचेतसः प्रतियन्तं चिदेनसः । देवा: कृणुथ जीवसे ॥
स्वर रहित पद पाठशश्वन्तम् । हि । प्रऽचेतसः । प्रतिऽयन्तम् । चित् । एनसः । देवाः । कृणुथ । जीवसे ॥ ८.६७.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 67; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 54; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 54; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O wise brilliancies, whoever turns to you ever and any time, even from sin, pray sustain and strengthen him to live his life to the full.
मराठी (1)
भावार्थ
पापी, अपराधी, चोर, व्यसनी इत्यादी प्रकारच्या माणसांना चांगले बनविणे हे राष्ट्राचे काम आहे. ॥१७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
अनया विनयं प्रार्थयते । यथा−हे प्रचेतसः=हे प्रकृष्टज्ञानाः ! सुबोद्धारः ! हे देवाः=विद्वांसः ! शश्वन्तं हि=अपराधाय सदाभ्यस्तमपि । एनसः=पापात्=पापं विधाय प्रतियन्तं चित् । कृणुथ=कुरुत ॥१७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
इस ऋचा से विनय की प्रार्थना करते हैं, यथा−(प्रचेतसः) हे ज्ञानिवर, हे उदारचेता, हे सुबोद्धा (देवाः) विद्वानो ! उन पुरुषों को (जीवसे) वास्तविक मानव-जीवन प्राप्त करने के लिये (कृणुथ) सुशिक्षित बनाओ, जो जन (शश्वन्तम्+हि) अपराध और पाप करने में सदा अभ्यासी हो गए हैं, परन्तु (एनसः) उनको करके पश्चात्ताप के लिये (प्रतियन्तम्) जो आपके शरण में आ रहे हैं, उन्हें आप सुशिक्षित और सदाचारी बनाने का प्रयत्न करें ॥१७ ॥
भावार्थ
पापियों, अपराधियों, चोरों, व्यसनियों इत्यादि प्रकार के मनुष्यों को अच्छा बनाना भी राष्ट्र का काम है ॥१७ ॥
विषय
तेजस्वी विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( प्रचेतसः ) उत्तम चित्त और उत्कृष्ट ज्ञानवान् पुरुषो ! हे ( देवाः ) दानशील ज्ञानप्रकाशक पुरुषो ! ( एनसः ) पाप से दूर ( प्रतियन्तं ) विरुद्ध दिशा में जाने वाले, या पापों का मुकाबला करने वाले ( शवन्तं ) बहुत से जनसमाज को ( जीवसे कृणुथ ) दीर्घ जीवन के लिये तैयार करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मत्स्यः सांमदो मान्यो वा मैत्रावरुणिर्बहवो वा मत्स्या जालनद्धा ऋषयः॥ आदित्या देवताः। छन्दः—१—३, ५, ७, ९, १३—१५, २१ निचृद् गायत्री। ४, १० विराड् गायत्री। ६, ८, ११, १२, १६—२० गायत्री॥
विषय
क्रियाशीलता व पापनिवृत्ति
पदार्थ
[१] हे (प्रचेतसः) = प्रकृष्ट ज्ञानोंवाले (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषो ! शश्वन्तं = [शश प्लुतगतौ ] - प्लुप्त गतिवाले- स्फूतवाले सतत क्रियाशील और (हि) = निश्चय से (एनसः प्रतियन्तं चित्) = पाप से निवृत्त होते हुए इस उपासक को (जीवसे) = दीर्घजीवन के लिए (कृणुथ) = करिये। [२] ज्ञानी देवों का सम्पर्क हमें क्रियाशील व पापनिवृत्त बनाए। ऐसा बनाकर यह देवसम्पर्क हमें दीर्घजीवी बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम ज्ञानी देवों के सम्पर्क में रहें। क्रियाशीलता व पाप की ओर न रुझानवाले इस प्रकार हम दीर्घजीवन को प्राप्त करेंगे।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal