ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 14
ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः
देवता - मरूतः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अधी॑व॒ यद्गि॑री॒णां यामं॑ शुभ्रा॒ अचि॑ध्वम् । सु॒वा॒नैर्म॑न्दध्व॒ इन्दु॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑ऽइव । यत् । गि॒री॒णाम् । याम॑म् । शु॒भ्राः॒ । अचि॑ध्वम् । सु॒वा॒नैः । म॒न्द॒ध्वे॒ । इन्दु॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधीव यद्गिरीणां यामं शुभ्रा अचिध्वम् । सुवानैर्मन्दध्व इन्दुभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअधिऽइव । यत् । गिरीणाम् । यामम् । शुभ्राः । अचिध्वम् । सुवानैः । मन्दध्वे । इन्दुऽभिः ॥ ८.७.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 14
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(शुभ्राः) हे शोभनाः ! (यद्) यदा (गिरीणाम्, अधीव) पर्वतानामुपरीव (यामम्) यानम् (अचिध्वम्) चिनुथ तदा (सुवानैः, इन्दुभिः) उत्पाद्यमानैर्दिव्यपदार्थैः (मन्दध्वे) सर्वान्मादयध्वे ॥१४॥
विषयः
ईश्वरज्ञानफलं दर्शयति ।
पदार्थः
हे शुभ्राः=प्राणायामैः शोधिताः पवित्रा मरुतः । यूयम् । यद्=यदा । गिरीणाम्=शिरसः । अधीव=उपरीव=शिरस उपरि स्थित्वा । यामम्=जगन्नियन्तारमीश्वरम् । अचिध्वम् । चिनुध्वे=जानीध्वे । तदा । सुवानैः=अभिषूयमाणैः । इन्दुभिः=आह्लादैरानन्दैः । मन्दध्वे=आनन्दथ ॥१४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(शुभ्राः) हे शोभन योद्धाओ ! (यद्) जब आप (गिरीणाम्, अधीव) पर्वतों के मध्यभाग के समान (यामम्) यान को (अचिध्वम्) इकट्ठा करते हैं, तब (सुवानैः, इन्दुभिः) अनेक दिव्य पदार्थों को उत्पन्न करते हुए (मन्दध्वे) सब प्रजाओं को हर्षित कर देते हैं ॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि स्वेच्छाचारी योद्धाओं के लिये जल स्थल सब एक प्रकार के हो जाते हैं और वे गिरिशिखरों के ऊपर विना रोक-टोक विचरते हैं ॥१४॥
विषय
ईश्वरज्ञान का फल दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(शुभ्राः) हे प्राणायामों से शोधित अतएव पवित्र इन्द्रियो ! आप (यद्) जब (गिरीणाम्) शिर के (अधीव) ऊपर स्थित होकर (यामम्) जगन्नियन्ता ईश्वर को (अचिध्वम्) जान लेते हो, तब (सुवानैः) चारों ओर से बरसते हुए (इन्दुभिः) आह्लादों के साथ (मन्दध्वे) आनन्दित होते हैं ॥१४ ॥
भावार्थ
ये इन्द्रियगण जब प्राणायाम से शुभ्र, पवित्र और शोधित होते हैं, तब ही ईश्वर को जानने लगते हैं और विविध आनन्द पाते हैं ॥१४ ॥
विषय
उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार जलवर्षी वायुगण ( गिरीणाम् अधि ) पर्वतों और मेघों के बीच में भी ( शुभ्राः ) शुभ्र वर्ण होकर ( यामं ) यम अर्थात् पवन के मार्ग का ( अचिध्वम् ) अवलम्बन करते या वायु मण्डल के बीच विद्यमान जल राशि का सञ्चय करते हैं, तब ( सुवानैः इन्दुभिः ) नये ९ उत्पन्न होते हुए द्रवणशील जलों से ( मन्दध्वे ) सब को आनन्दित करते हैं। उसी प्रकार हे वीर पुरुषो ! आप लोग ( गिरीणां ) पर्वतों के ( अधि इव ) मानो ऊपर भी ( यामं ) यम, नियन्ता राष्ट्र पति के आदेश को ही ( अचिध्वम् ) ग्रहण करो। हे ( मरुतः ) वायुवत् प्रिय शिष्य जनो ! आप लोग भी ( शुभ्राः ) शुद्धाचरण, तेजस्वी, रहकर (गिरीणां) उपदेष्टा गुरुजनों के ( यामं ) यम-नियमादि व्रत पालन और 'यम' नियन्ता आचार्य के ज्ञानोपदेश को ( अधि इव अचिध्वम् ) खूब अधिकाधिक ग्रहण करो। आप लोग ( सुवानैः ) ऐश्वर्य वृद्धि करने वाले प्रजाजनों से वा ऐश्वर्यों से ( मन्दध्वे ) स्वयं प्रसन्न होओ और अन्यों को भी प्रसन्न करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
जितेन्द्रियता-सोमरक्षण -आनन्द
पदार्थ
[१] हे (शुभ्रा:) = हमारे जीवनों को शुभ्र बनानेवाले प्राणो ! (यद्) = जब (गिरीणाम्) = इन ज्ञान की वाणियों के अन्दर विचरनेवाले ज्ञानी पुरुषों के जीवन में (अधि इव) = खूब अधिकता से (यामम्) = संयम का (अचिध्वम्) = संचय करते हो, तो (सुवानैः) = उत्पन्न किये जाते हुए इन (इन्दुभिः) = सोमकणों से (मन्दध्वे) = आनन्दित करते हो। [२] प्राणसाधना से इन ज्ञानी पुरुषों का जीवन खूब ही संयमवाला होता है। यह संयम सोमरक्षण का साधन बनता है। सुरक्षित सोम जीवन को 'नीरोग, निर्मल व दीत' बनाकर आनन्दमय बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से 'जितेन्द्रियता, सोमरक्षण व आनन्द' की प्राप्ति होती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Heroes of the wind, radiant and pure, when you harness your chariots to ride over the mountains, then with the showers of soma you rejoice and move the world to rapture.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात हा भाव आहे की, स्व इच्छेने वागणाऱ्या योद्ध्यांसाठी जल, स्थल सर्व सारखेच असतात व ते गिरिशिखरावर स्वच्छंदपणे विहार करू शकतात. ॥१४॥
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