ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 25
ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः
देवता - मरूतः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
वि॒द्युद्ध॑स्ता अ॒भिद्य॑व॒: शिप्रा॑: शी॒र्षन्हि॑र॒ण्ययी॑: । शु॒भ्रा व्य॑ञ्जत श्रि॒ये ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्युत्ऽह॑स्ताः । अ॒भिऽद्य॑वः । शिप्राः॑ । शी॒र्षन् । हि॒र॒ण्ययीः॑ । शु॒भ्राः । वि । अ॒ञ्ज॒त॒ । श्रि॒ये ॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्युद्धस्ता अभिद्यव: शिप्रा: शीर्षन्हिरण्ययी: । शुभ्रा व्यञ्जत श्रिये ॥
स्वर रहित पद पाठविद्युत्ऽहस्ताः । अभिऽद्यवः । शिप्राः । शीर्षन् । हिरण्ययीः । शुभ्राः । वि । अञ्जत । श्रिये ॥ ८.७.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 25
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(विद्युद्धस्ताः) विद्युच्छक्तिमच्छस्त्रहस्ताः (अभिद्यवः) अभितो द्योतमानाः (शीर्षन्) शिरस्सु (हिरण्ययीः) हिरण्मयीः (शुभ्राः) शोभनाः (शिप्राः) शिरोरक्षणीः (श्रिये) शोभायै दधानाः (व्यञ्जत) प्रकाशन्ते ॥२५॥
विषयः
पुनस्तदेव दर्शयति ।
पदार्थः
पुनः । मरुतः । शीर्षन्=शीर्ष्णि=शिरसि=आकाशे । हिरण्ययीः=हिरण्यमयीः=शोभमानाः । शिप्राः=गतीः । श्रिये=जगत्कल्याणाय । व्यञ्जत=व्यञ्जयन्ति=व्यक्तीकुर्वन्ति । कीदृशाः । विद्युद्धस्ताः=विद्युत इव चञ्चलहस्ताः । अभिद्यवः=अभितो द्योतमानाः । पुनः । शुभ्राः ॥२५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(विद्युद्धस्ताः) विद्युत् शक्तिवाले शस्त्रों को हाथ में लिये हुए (अभिद्यवः) चारों ओर से द्योतमान वे योद्धा (शीर्षन्) शिर में (हिरण्ययीः) सुवर्णमय (शुभ्राः) सुन्दर (शिप्राः) शिरस्त्राण को (श्रिये) शोभा के लिये धारण किये हुए (व्यञ्जत) प्रकाशित होते हैं ॥२५॥
भावार्थ
पदार्थविद्यावेत्ता योद्धा लोग नाना प्रकार के विद्युत् शस्त्रों को लेकर धर्मयुद्ध में उपस्थित हों और शत्रुओं को विजय करते हुए प्रकाशित हों ॥२५॥
विषय
पुनः उसी को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
पुनः वे मरुद्गण (शीर्षन्) आकाश में (हिरण्ययीः) सुवर्णमय अर्थात् अत्युत्तम (शिप्राः) गतियों को (श्रिये) जगत् के कल्याण के लिये (व्यञ्जत) प्रकट करते हैं (विद्युद्धस्ताः) जिनके मानो हाथ विद्युत् के समान चञ्चल हैं और (अभिद्यवः) जो चारों तरफ देदीप्यमान हो रहे हैं और जो (शुभ्राः) शोभमान हैं ॥२५ ॥
भावार्थ
यह वायु का स्वाभाविक वर्णन है कि ईश्वरीय प्रबन्ध से ज्यों-२ वायु का प्रसार आकाश में होता गया, त्यों-२ जगत् का मङ्गल बढ़ता गया ॥२५ ॥
विषय
उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) वीर पुरुषो ! आप लोग ( विद्युद्-हस्ताः ) विद्युत् के समान विशेष चमकीले शस्त्र या आभूषण को हाथ में रक्खो और स्वयं ( अभिद्यवः ) कान्ति युक्त ( शुभ्राः ) शोभायुक्त वस्त्रालंकार धारण कर ( शीर्षन् ) शिर पर ( हिरण्ययीः ) सुवर्ण से सजी, सुनहरी, सुन्दर ( शिप्राः ) टोपियों या लोह आदि के बने शिर बचाने के टोपों को (श्रिये), शोभा वृद्धि के लिये ( वि-अञ्जत) विशेष रूप से प्रकट किया करें ।
टिप्पणी
शिप्राः – टोपियां । इति द्वाविंशो वर्गः ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
शुभ्र जीवन
पदार्थ
[१] 'मरुत्' - प्राण हैं । प्राणसाधना करनेवाले पुरुष भी मरुत् कहलाते हैं। ये मरुत् 'विद्युद् हस्ता:'= विद्युत् से बने हाथोंवाले, अर्थात् शीघ्रता से कार्य करनेवाले, (अभिद्यवः) = सब ओर से दीप्तिवाले, तेजस्वी (शुभ्रा:) = निर्मल जीवनवाले होते हैं। इनके मनों में राग-द्वेष आदि का मल नहीं होता। [२] ये प्राणसाधक पुरुष (शीर्षन्) = अपने सिरों पर (हिरण्ययीः) = ज्योतिर्मय (शिप्राः) = शिरस्त्राणों को (व्यञ्जत) = प्रकट करते हैं और (श्रिये) = शोभा के लिये होते हैं। योद्धाओं ने सिरों के रक्षण के लिये शिरस्त्राण [टोपियो] धारण किये होते हैं। इन प्राणसाधकों ने भी मस्तिष्क में ज्ञानरूप शिरस्त्राण को ही मानो स्थापित किया होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से [क] हाथ विद्युत् के समान शीघ्रता से कार्यों को करते हैं, [ख] शरीर सब ओर दीप्तिवाला, तेजस्वी बनता है, [ग] मस्तिष्क में ज्ञानरूप शिरस्त्राण की स्थापना होती है, [घ] इन साधकों के हृदय निर्मल होते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Thunder in hand, all round refulgent, wearing golden helmets on the head, they shine bright and pure for the beauty and glory of life.
मराठी (1)
भावार्थ
पदार्थविद्यावेत्ते योद्धे लोक नाना प्रकारच्या विद्युत शस्त्रांना घेऊन धर्मयुद्धात उपस्थित होतात व शत्रूवर विजय प्राप्त करून प्रकाशित होतात. ॥२५॥
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