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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 22
    ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    समु॒ त्ये म॑ह॒तीर॒पः सं क्षो॒णी समु॒ सूर्य॑म् । सं वज्रं॑ पर्व॒शो द॑धुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । ऊँ॒ इति॑ । त्ये । म॒ह॒तीः । अ॒पः । सम् । क्षो॒णी । सम् । ऊँ॒ इति॑ । सूर्य॑म् । सम् । वज्र॑म् । प॒र्व॒ऽशः । द॒धुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समु त्ये महतीरपः सं क्षोणी समु सूर्यम् । सं वज्रं पर्वशो दधुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । ऊँ इति । त्ये । महतीः । अपः । सम् । क्षोणी । सम् । ऊँ इति । सूर्यम् । सम् । वज्रम् । पर्वऽशः । दधुः ॥ ८.७.२२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 22
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (त्ये) ते योद्धारः (महतीः, अपः) महान्ति जलानि (समु) सन्दधति (क्षोणी) पृथिवीं च (सम्) संदधति (सूर्यम्, समु) सूर्यं च सन्दधति (पर्वशः) कठोराण्यङ्गानि विदारयितुं (वज्रम्) शस्त्रं च (सन्दधुः) सन्दधति ॥२२॥

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    विषयः

    वायुस्वभावं दर्शयति ।

    पदार्थः

    त्ये=ते सुप्रसिद्धा मरुतः । महतीः । अपो जलानि । सन्दधुः=सन्दधति । ओषध्यादिभिः संयोजयन्ति । पुनः । क्षोणी=द्यावापृथिव्यौ । सन्दधुः । पुनः । सूर्यं सन्दधुः । पुनः । पर्वशः=विघ्नानां पर्वणि पर्वणि । वज्रमायुधम् । सन्दधुः । उ शब्दश्चार्थः ॥२२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (त्ये) वे योद्धा लोग (महतीः, अपः) महान् जलों का (समु) सन्धान करते हैं (क्षोणी) पृथिवी का (सम्) सन्धान करते और (सूर्यम्, समु) सूर्य का सन्धान करते हैं (पर्वशः) कठोर स्थलों को तोड़ने के लिये (वज्रम्) विद्युत्शक्ति का (सन्दधुः) सन्धान करते हैं ॥२२॥

    भावार्थ

    उपर्युक्त वर्णित विद्वान् पुरुष बड़े-बड़े आविष्कार करके प्रजा को सब प्रकार से सुखी करते हैं अर्थात् जलों के संशोधन की विद्या का उपदेश करते और अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों का प्रकाश करते हैं, जिससे शत्रु का सर्वथा दमन हो और इसी कारण वे विद्वान् पूजार्ह होते हैं ॥२२॥

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    विषय

    वायु का स्वभाव दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (त्ये) वे सुप्रसिद्ध मरुद्गण (महतीः+अपः) बहुत जल (सन्दधुः) ओषधि आदि पदार्थों के साथ मिलते हैं । (उ) पुनः (क्षोणीः) द्युलोक और पृथिवी को (सम्) अपनी शक्ति से मिलाते हैं (उ) और (सूर्य्यम्) सूर्य को (सम्) पदार्थों के साथ मिलाते हैं तथा विघ्नों के (पर्वशः) अङ्ग-अङ्ग पर (वज्रम्+सम्) अपने आयुध को रखते हैं ॥२२ ॥

    भावार्थ

    वेद में विचित्र प्रकार का कहीं-२ वर्णन आता है । वायु से क्या-क्या घटना होती रहती है, यह इससे दिखलाते हैं । वायु के योग से जल होता है, यह प्रत्यक्ष है । क्षोणी अर्थात् द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य यदि वायु न हो, तो दोनों को परस्पर उपकार न हो । इसी प्रकार सूर्य का किरण वायु के द्वारा ही पृथिवी पर गिरता है और वायु से नाना रोगों और विघ्नों का भी नाश होता है ॥२२ ॥

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    विषय

    उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार मेघ लाने वाले सजल वायुगण ( महती अपः सं दधुः ) बहुत भारी जल राशि को अच्छी प्रकार धारण करते हैं । (क्षोणी सं दधुः ) भूमि पर उन जलों को प्रदान करते हैं, वा वे वृष्टि युक्त वायुगण ( क्षोणी सं दधुः ) इस भूमि और अन्तरिक्ष को परस्पर सुसम्बद्ध करते हैं वे ही ( सूर्यम् ) सूर्य की दीप्ति को ( सं दधुः ) धारण करते हैं और ( वज्रं ) विद्युत् को भी ( पर्वशः ) पोरु २, खण्ड २ कर धारण करते हैं उसी प्रकार ( त्ये ) वे वीर पुरुष भी ( महतीः अपः सम् दधुः) बहुत बड़ी प्रजाओं को धारण करें, ( क्षोणी सम् ) स्व और पर-राष्ट्रों को सन्धि द्वारा व्यवस्थित करें, ( सूर्यं सं दधुः ) सूर्यवत् तेजस्वी राजा वा सेनापति को धारण करें, और ( वज्रं पर्वशः सं दधुः ) वज्र की एक २ टुकड़ी का नायक महास्त्र धारण करे वा वे स्वयं टुकड़ी २ होकर महा सैन्य बल को और अपने सन्धि २, जोड़ २ पर बल धारण करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    [१] (त्ये) = गत मन्त्र के अनुसार प्राणसाधना से 'प्रभु-स्तवन की वृत्ति तथा सत्य के बल को' अपनानेवाले लोग (उ) = निश्चय से (महनीः अपः) = महत्त्वपूर्ण रेतःकणरूप जलों को (संदधुः) = धारण करते हैं। प्राणसाधना ही रेतःकणों के रक्षण का कारण बनती है। रेतःकणों के रक्षण के द्वारा (क्षोणी) = इस शरीररूप पृथिवी को (सम्) = धारण करते हैं (उ) = और (सूर्यम्) = सूर्य को (सम्) = धारण करते हैं। अध्यात्म में यह सूर्य 'ज्ञान का सूर्य' है। इस सूर्य के ये धारण करनेवाले होते हैं। [२] ये लोग इस प्रकार 'रेतःकणों, शरीर तथा ज्ञानसूर्य' को धारण करके (पर्वशः) = एक-एक पर्व में (वज्रं दधुः) = क्रियाशीलतारूप वज्र को धारण करते हैं। इनके सब अंग क्रियाशील होते हैं। ये जीवन को क्रियामय बनाये रखते हैं।

    पदार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से 'रेतःकणों का रक्षण होकर, शरीर की दृढ़ता, ज्ञानसूर्य का उदय तथा क्रियाशीलता' प्राप्त होती है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those Maruts support and hold together in cosmic balance the mighty floods of water, the earth, the sun, and the force and power of thunder stage by stage.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वरील विद्वान पुरुष मोठमोठे आविष्कार करून प्रजेला सर्व प्रकारचे सुख देतात. अर्थात् जलसंशोधनविद्येचा उपदेश करतात व अनेक प्रकारची शस्त्रास्त्रे संशोधन करतात, ज्यामुळे शत्रूचे दमन व्हावे. यामुळेच ते विद्वान पूजा करण्यायोग्य असतात. ॥२२॥

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