Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 7 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 23
    ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    वि वृ॒त्रं प॑र्व॒शो य॑यु॒र्वि पर्व॑ताँ अरा॒जिन॑: । च॒क्रा॒णा वृष्णि॒ पौंस्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । वृ॒त्रम् । प॒र्व॒ऽशः । य॒युः॒ । वि । पर्व॑तान् । अ॒रा॒जिनः॑ । च॒क्रा॒णाः । वृष्णि॑ । पौं॒स्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि वृत्रं पर्वशो ययुर्वि पर्वताँ अराजिन: । चक्राणा वृष्णि पौंस्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । वृत्रम् । पर्वऽशः । ययुः । वि । पर्वतान् । अराजिनः । चक्राणाः । वृष्णि । पौंस्यम् ॥ ८.७.२३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 23
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अराजिनः) स्वतन्त्राः (वृष्णि, पौंस्यं, चक्राणाः) तीक्ष्णपौरुषं कुर्वाणास्ते (वृत्रम्) स्ववारकम् (पर्वशः) प्रतिपर्व (विययुः) खण्डयन्ति (पर्वतान्) स्वमार्गाय गिरींश्च (वि) स्फोटयन्ति ॥२३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    वायुप्रकृतिं दर्शयति ।

    पदार्थः

    अराजिनः=न केनचिदपि राज्ञा अधिष्ठिताः स्वतन्त्राः । पुनः । वृष्णि=वीर्य्यवत् । पौंस्यम्=बलम् । चक्राणाः=कुर्वन्तो मरुतः । वृत्रम्=जगतां विघ्नम् । पर्वशः=पर्वणि पर्वणि । विययुः=विशिष्टं वधमगमयन् । पुनः । पर्वतान्=मेघांश्च वियुक्तवन्तः ॥२३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अराजिनः) स्वतन्त्र (वृष्णि, पौंस्यम्, चक्राणाः) तीक्ष्ण पौरुष करते हुए वे लोग (वृत्रम्) अपने मार्गरोधक शत्रु को (पर्वशः) पर्व-पर्व में (विययुः) विभिन्न कर देते हैं (पर्वतान्) और मार्गरोधक पर्वतों को भी (वि) तोड़-फोड़ डालते हैं ॥२३॥

    भावार्थ

    वे अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग को जाननेवाले विद्वान् पुरुष अपने परिश्रम द्वारा मार्गरोधक शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करके भगा देते हैं और वे जिन पर्वतों का आश्रय लेते हैं, उनको भी अपनी विद्याद्वारा तोड़-फोड़ कर शत्रुओं का निरोध करते हैं ॥२३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वायु की प्रकृति दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अराजिनः) किसी राजा से अधिष्ठित नहीं अर्थात् स्वतन्त्र और (वृष्णि) वीर्ययुक्त (पौंस्यम्) महाबल को (चक्राणाः) करते हुए वे मरुद्गण (वृत्रम्) जगत् के निखिल विघ्नों को (पर्वशः) खण्ड-२ करके (वि+ययुः) फेंक देते हैं और (पर्वतान्) मेघों को भी इधर-उधर छितिर-वितिर कर देते हैं ॥२३ ॥

    भावार्थ

    अग्नि, सूर्य्य, मरुत् आदि पदार्थों को जगत् के कल्याण के लिये ईश्वर ने स्थापित किया है । वायु के अनेक कार्य हैं, मुख्य कार्य ये हैं कि जो रोग कीट या अन्यान्य रोगोत्पादक अंश कहीं जम जाते हैं, तो वायु उनको उड़ाकर इधर-उधर छींट देते हैं, जिनसे उनका बल सर्वथा नष्ट हो जाता है । और मेघों को चारों दिशाओं में ले जाकर बरसाते हैं और प्राणियों को जीवित रखते हैं । अतः इनके गुणों का निरूपण वेदों में आता है ॥२३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार पूर्वोक्त वायुगण ( वृत्रं ) जल को ( पर्वशः ) पोरु २ पर (वि ययुः) विशेष रूप से व्यापते हैं। वे ( अराजिनः ) स्वयं दीप्तिरहित, श्याम ( पर्वतान् वि ययुः ) मेघों को भी व्यापते हैं और ( वृष्णि ) वर्षणशील मेघ पर विशेष ( पौंस्यं विचक्राणाः भवन्ति ) बल पराक्रम करते हैं उसी प्रकार वे वीर लोग ( वृत्रं ) अपने बढ़ते या घेरने वाले शत्रु को ( पर्वशः वि ययुः ) पोरु २, सन्धि २, जोड़ २ में व्याप लें, उसके सैन्य दल में घुस जांय ( अराजिनः ) राजा के विपरीत, उच्छृंखल द्रोही ( पर्वतान् ) पर्वतवत् अचल शत्रुओं पर भी (वि ययुः) चढ़ाई करें। और ( वृष्णि ) बलवान् शत्रुपर वा ( घृष्णि ) उत्तम बलवान् प्रबन्धक पुरुष के अधीन रहकर ( पौंस्यं ) बल पौरुष ( चक्राणा: ) करते रहा करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Doing acts of mighty vigour and splendour they break the clouds of darkness and evil and split open cavernous mountains step by step and bring light and showers of rain.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    अस्त्रशस्त्रांचा प्रयोग जाणणारे विद्वान पुरुष आपल्या परिश्रमाद्वारे मार्गरोधक शत्रूंना छिन्नभिन्न करून पळवून लावतात व ते ज्या पर्वतांचा आश्रय घेतात त्यांची ही तोडफोड करून शत्रूंचा नाश करतात. ॥२३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top